यदि कोई विवाद ना हो.. मुझे कोई प्रतिवाद ना हो..

यदि कोई विवाद ना हो..

मुझे कोई प्रतिवाद ना हो..।

छेड़ दिया है जो शंखनाद ..

युद्ध की फिर क्यों शुरुवात ना हो..।

ये अतिक्रमण तुम्हारा..!!

मौन हमारा कब तक होगा..

ये दमन हमारा..तुम्हारे द्वारा..

क्योंकर ना प्रतिउत्तर होगा..।

सुख शांति अगर नहीं पसंद तुम्हें..

कब तक ना समर होगा..!

हमको इससे इंकार नहीं..

कि मानवता से प्यार नहीं..

मानव जो तुम रह ना सके..

हमसे भी ना अब सबर होगा..।

वैसे तो समझो इतनी बात..

अपनी अपनी हद में रहो. 

हम नहीं चाहते युद्ध कभी..

तुम भी समझो कि..कुछ भी..

किसी का अप्रिय ना हो..।


खूबसूरत नहीं थी मैं..तुम भी मनोहर नहीं थे

खूबसूरत..नहीं थी मैं..

तुम भी मनोहर नहीं थे..।

साथ में आए तो..
नयन मेरे चमकने लगे..
तुम भी मुस्कुराने लगे..।
और साथ चले जब..
जीवनसाथी बनकर..
आकर्षण के कवच त्यागकर..
हम दोनों एक दूसरे को पसंद आने लगे..।
फिर पंख एक हो गए..
हम अनंत में खो गए..
ढूंढ कर लाए हम किलकारियां..
प्रेम को समझ पाने लगे..।
ख्वाहिशें मेरी हो गईं तुम्हारी..
तुम्हारी चाहते हम चाहने लगे..।
जीवन की सब गलियों से निकलकर..
साथ बैठे जब बहुत दूर चलकर..।
जहां हृदय का पूर्ण संगम हो..।
कुछ खूबसूरत है..तो मैं हूं..
कुछ मनोहर है..वो तुम हो..।।

चांद विषय है...

चांद विषय है ...
कई लेखों का..
कई कविताओं का..
कई बातों का..
कई मुहावरों का..
कई अभियानों का..
कई उड़ानों का..।
अब चांद पर और क्या !
जो है आकर्षण दुनियाभर का
उस पर भला और गौर क्या..।
गुरुत्वाकर्षण ज्वार भाटे का..
पृथ्वी का कोई मीत या..
दुश्मनी में रची बसी कोई रीत..।
चांद रात के किस्से संभालिए..
आभासी दुनिया से खुद को निकालिए..।
दुनिया दूर की खूबसूरत सी ही है..
देखने को असलियत मन की दूरबीन निकालिए..।
बदसूरत होना भी यूं तो कोई पाप पुण्य का लेखा नहीं..।
मन के स्वीकार्य हैं कभी सुलझे हुए कभी उलझे हुए..
कभी किसी ने मन से नहीं देखा, कभी मन देखा नहीं..।।

प्रेम भी कोई चीज़ है क्या !!

प्रेम भी कोई चीज़ है क्या !!

करने को ,कर गुजने को !!

एहसास कहूं तो झूठा है..

दिमाग ने दिल को लूटा है..।

मतलबी जब लोग सभी..

ये बंधन कैसे दिलों का हैं !!

कितने उदाहरण है घूमते ..

वो जो थे कभी माथे को चूमते..।

चिता जलाकर भूल गए वो 

रुखसत हुए है हम दुनिया से सिर्फ 

रिश्ता तो नहीं टूटा है..।

मै हमारे तुम्हारे बच्चों में अभी जिंदा हूं

प्रेम था जिससे तुमको मैं वही वृंदा हूं..

कुंवारे बन के ले आए एक नए प्रेम को..

अब तो यकीनन कहीं प्रेम नहीं..

शरीर से बंधा मन होगा ये 

मन से मन का मिलन नहीं..

प्रेम है झूठी परिकल्पना..

प्रेम से भरा यहां कोई मन नहीं..।।

जो बंदिशे नहीं होंगी.. निश्चल प्रेम भी नहीं होगा..

जो बंदिशे नहीं होंगी..

निश्चल प्रेम भी नहीं होगा..।

मिलन में कोई मतलब हो सकता है..

ना मिले ..और प्रेम हो जाय सदा के लिए..

बस वही तो मन का प्रेम होगा..।

प्रेम अगर आलिंगन है..

अधरों का मिलन है..

और समाजिक व्यवहार नहीं..

निश्चित ही ये कुछ और है..

ये मौलिक प्यार नहीं..

मौलिकता को समझोगे कैसे ?

नैतिक जब मन के उदगार नहीं..

वो जो फांसते हैं मीठी मीठी बातों से..

उनको समझाना मुश्किल है..

तुम ही समझो हे प्रिया..

प्रेम अवश्य है जगत में..

तुम्हारे  लिए कहीं छुपा..

छुपा हुआ हो मकसद जिनका..

वो तुम्हारा प्यार नही...।।।।।

तुम्हारी हमारी ना सही किसी की तो होगी..

तुम्हारी हमारी ना सही किसी की तो होगी..

ना रही ज़िन्दगी अपनी फिर भी ..।

बाकी ज़िन्दगी होगी ..

तुम कहने को कुछ चूक जाओगे..

हम सुनने से कुछ रह जाएंगे..

बातें फिर भी यही सब ..

आगे पीछे किसी ने कही होंगी..।

मन व्याकुल हो कर शिथिल हो गया जो..

सब कुछ व्यर्थ सा लगता है..।

अब आंखे मूंद ही लें..लेकिन

कुछ सोच सोच कर मन में..

शेष समर चलता है..।

बहुत जिया, जी भर जिया..

सब काम काज निपटा भी दिए..।

जो था आवश्यक संसार व्यवहार..

सब बेड़ा पार लगा भी दिए..।

बूढ़े तन में लेकिन डूबा मन ..

कई पीढ़ियों का संसार रचता है..।।

प्रिय तुम्हारी भेंट...

प्रिय तुम्हारी भेंट..
आज पुष्पों से आच्छादित है..।
यदि ये एक फूल होता मात्र..
या कोई गुलदस्ता ..
कुछ रोज़ में मुरझा गया होता..
मुश्किल भी होता बचाना उसे..
सोचो कैसे वो भला बचा होता..।
लेकिन गमले में लगा ये पौधा..
मेरे सामर्थ्य में है इसे सींचना..
पालना , उसे बढ़ते देखना..।
इसकी टहनी से मैंने और भी..
हरियाली प्रेम की पाई है..।
नई ऊर्जा हर एक कली के साथ..
ये नहीं कुछ देर का साथी..
बिल्कुल तुम्हारे प्रेम की तरह..
ये भी कालजयी है..।।

छत से दूसरी छत के आज नजारे देखे हमने.

छत से दूसरी छत के आज नजारे देखे हमने..
कुछ बच्चों को खेलते देखा..कुछ को बैठे शांत..
फूलों के गमले, मुरझाईं कुछ बेलें, कुछ जीवन विश्रांत..
कुछ स्त्रियों के केश मेहंदी में डूबे हुए..
छुपाने की,रंगने की,  क्योंकर चाहत ?
कुछ बीते हुए को पाने की शायद थी अकुलाहट..
कुछ पुरुषों को बैठे देखा भिन्न भिन्न अवेगों में..
अखबारों के पन्ने कुछ ..उन अलसाई आंखों में..
भविष्य के कुछ सपने देखे..साथ बैठे कुछ अपने देखे..
परिवार देखे कुछ..कुछ अकेलेपन के दर्पण देखे..
इस सर्दी की धूप में ........छत पर खड़े हुए .....
देखे कुछ ताजातरीन रिश्ते..कुछ औंधे मुंह पड़े हुए..
खुद की छत पर भी देखा कुछ, मन भर गया..
दृश्य इधर उधर के , कभी कभी मेरे अपने घर के..
मन ने जो देखा आंखों के आइने से, चुपके से..
धीरे धीरे बोझिल बोझिल मन सीढ़ियों से नीचे उतर गया !!

खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..

खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..

बहुत लुभावना ,बहुत बड़ा अति आकर्षक संसार लिए..।

थोड़े बड़े हुए खुद जो..छोटे पग लगने लगे..

विस्तार जगत का देखा तो ,नापने वो भगने लगे..।

कुछ तो हाथ में आ जाए, मन भर के व्यापार हो..

लेकिन अनंत की चाह में खुद को ही ठगने लगे..।

प्रेम ऋतु भी आयी ,जीवन में कई बदलाव हुए..

छोटी सी दुनिया बसाने के पारित कई प्रस्ताव हुए..

आखिर में बन ही गई वो प्यारी सी दुनिया जो..

फंसे फंसे से, बुझे बुझे से.. दिखते हैं कुछ कुछ..

खुशियों की चाहत में अजीब से उतार चढ़ाव हुए..।

और बढ़े आगे जो..बहुत अशांत सा मन पाया हमने 

पीछे तो कुछ था ही नहीं, आगे भी ना समझ पाया हमने..

बहुत पढ़ा, बहुत सीखा था और लिखा था पन्नों पर..

अब तो कुछ याद नहीं.. हैं अब शून्यता के खंडहर से..

इमारत तो थी नक्काशी दार, हैं अब जर्जर आधार लिए..

खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..।।

औपचारिकताओं से जो इतने ना बंधे होते..

औपचारिकताओं से जो..

इतने ना बंधे होते..!

जीवन जीते जी भर के..

ऐसे ना सधे, तने होते..!

हां ये भी जरूरी ही है..

लेकिन उचित अनुपात में....

अंकुश और बंदिशों के काश !

कुछ तो मानक बने होते ।

औपचारिकताओं को ही निभाया हमने..

कुछ ना मन का कर पाया हमने..।

फिर आलस वश कुछ प्रतिकार भी नहीं ..!

मन को छुपा दिया हमने, अब किसी बात का सरोकार नहीं ..

काश होता कुछ अंतर्मन में ,एक अदद.. स्वीकार के सिवा 

कोई विरोध हालातों से.. एक जीवन निर्वाह के सिवा..

मन जैसा कुछ .. होता जीवन में ..जीवन से लगाव लिए..

मन ने औपचारिकताएं छोड़ मन के सपने बुने होते..।

अपने तो चिन्हित किए ..जीवन के स्वत: चुनाव ने..

काश ! औपचारिक ना होते इतने..सच में कुछ अपने होते...!!!

हे ईश्वर ! तुम रहते कहां हो??

 

हे ईश्वर ! तुम रहते कहां हो ??

हर जगह मौजूद हो ..ऐसा पता है मुझे..

देख लूं तुम्हें.. दिखते कहां हो??

मैंने सुना..तप करना होगा ..

तुम तक पहुंच सकूं..

संसार से उबरना होगा..।

पर हैं दावा करते लोग..

कुछ लोग हैं तुम्हारे खास !

कुछ घर हैं ठिकाने तुम्हारे..

लेकिन मुझे क्यूं है अविश्वास ..!

आकर तुम्हीं बताओ अब..टिकते कहां हो??

नाम तुम्हारा अपनी अपनी भाषा में,

रखे हैं रूप भी अलग अलग ..

अपनी अपनी परिभाषा में,

मैं भी नाम रख लूं कुछ और तुम्हारा..

मेरे प्रयोजनों से तुम !! 

संज्ञा रखते कहां हो ??

स्त्री पुरुष.. भी क्या तुम करते हो !!

अर्धनारीश्वर हो ना तुम ..

फिर भेद के क्यूं ..दुनिया में रंग भरते हो..??

विविध तुम्हारी दुनिया सिर्फ..

भेद नहीं कल्पना तुम्हारी..

इस अज्ञान की दुनिया में..

ये बात बतलाने को..

तुम विचरते कहां हो ??

ये बिन बात का तकल्लुफ..

ये बिन बात का तकल्लुफ !!

खत्म करो अब सब वास्ते..

पुल ही उड़ा डालो  मतलब के..

खुद तक बंद करो सब रास्ते.. ।

ये खुद की दुनिया भी मुकम्मल है..

किसी का दख़ल क्यों स्वीकारा जाए ??

एहसान जताते रहते हैं.. उपकार के नाम पर..

ऐसे ख़ुदाओं को क्यूं मदद के लिए पुकारा जाए !!

भूल जाओ चेहरे मतलबी और उन तक ही दौड़ते रहना..

तकलीफ तो यूं भी हैं..पूरी बिखोरो ये अधूरी मुस्कुराहटें..।

बहुत साधारण सा ज्ञान मुझको..

बहुत साधारण सा ज्ञान मुझको..
रस छंद अलंकार नहीं लिखती..।
साधारण सी बातें है साफ साफ..
लच्छेदार वाक्य, श्रृंगार नहीं लिखती..।
हां कुछ कहना चाहती हूं तुमसे..
विनम्र सा निवेदन लिए..
बदलने हैं यहां के कुछ हालात..
क्रांति के नाम पर विवाद नहीं लिखती..।
बदलेगा ये माहौल भी..
तुम भी हाथ बढ़ाओ जो..
दो ही लोगों की तो बात है..
मसले ये सब सुलझाओ तो..
तुमको सुनाई ना दे..
ऐसी तो आवाज़ नहीं लिखती..।
कभी तुम प्रेरणा बनो..
कभी तुम सहारा..
कुछ सुधार करो..
कुछ निर्माण करो..
धरातल पर ना आ सकें जो..
ऐसे तो खयालात नहीं लिखती..।

ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही...

ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही... चले आते हैं, चले जाते हैं... सुबह शाम बिन कहे सुने.. न हाथों का मेल....