हे ईश्वर ! तुम रहते कहां हो??

 

हे ईश्वर ! तुम रहते कहां हो ??

हर जगह मौजूद हो ..ऐसा पता है मुझे..

देख लूं तुम्हें.. दिखते कहां हो??

मैंने सुना..तप करना होगा ..

तुम तक पहुंच सकूं..

संसार से उबरना होगा..।

पर हैं दावा करते लोग..

कुछ लोग हैं तुम्हारे खास !

कुछ घर हैं ठिकाने तुम्हारे..

लेकिन मुझे क्यूं है अविश्वास ..!

आकर तुम्हीं बताओ अब..टिकते कहां हो??

नाम तुम्हारा अपनी अपनी भाषा में,

रखे हैं रूप भी अलग अलग ..

अपनी अपनी परिभाषा में,

मैं भी नाम रख लूं कुछ और तुम्हारा..

मेरे प्रयोजनों से तुम !! 

संज्ञा रखते कहां हो ??

स्त्री पुरुष.. भी क्या तुम करते हो !!

अर्धनारीश्वर हो ना तुम ..

फिर भेद के क्यूं ..दुनिया में रंग भरते हो..??

विविध तुम्हारी दुनिया सिर्फ..

भेद नहीं कल्पना तुम्हारी..

इस अज्ञान की दुनिया में..

ये बात बतलाने को..

तुम विचरते कहां हो ??

18 comments:

  1. सुंदर एवं सारगर्भित चिंतन ..

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  2. बहुत बढ़िया।

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  3. ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं ... उस परमात्मा के अंश हम हैं और हमारे अंदर ही परमात्मा है । बाहर तो परमात्मा का व्यापार है ।

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  4. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०५-०२-२०२१) को 'स्वागत करो नव बसंत को' (चर्चा अंक- ३९६९) पर भी होगी।

    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    अनीता सैनी

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    1. धन्यवाद आपका..
      चर्चा अंक में जगह देने के लिए..

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    2. अति सुन्दर 🙏

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  5. निराकार ईश्वर की साकार शब्दों में बहुत सुंदर प्रार्थना 🌹🙏🌹

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  6. अविदित5/2/21 9:08 PM

    ज़िन्दगी की आपा धापी,
    ढूंढा तुझे मंदिरों,पहाड़ो में
    औऱ न जाने कितने दुर्गम
    सुगम स्थलों में,
    क्या तपस्वी क्या पुजारी
    क्या योगी तो क्या भोगी
    अनजान सभी अनिभिज्ञ सभी
    फिर भी तलाश निरंतर युगान्तर
    मिला तू मुझे मेरे अंदर
    माँ तू ही तो है मेरा सर्वान्तर
    ईश्वर कहूँ देवी कहुँ क्या कहूँ
    नही नहीं मैं कुछ भी नही कहूँ,
    बस माँ माँ माँ माँ----------
    हे ईश्वर ! तुम रहते यहाँ हो।

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  7. भावपूर्ण सृजन

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  8. बहुत सुंदर रचना।

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  9. आकर तुम्हीं बताओ अब..टिकते कहां हो??...एक बड़ी लंबी खोज...करता मन ..वाह

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  10. साँच कहूं सुन लेओ सभै ,

    जिन प्रेम कियो तीन ही प्रभ पायो -

    शीशा -ए -दिल में छिपी तस्वीरें यार ,

    जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली।

    अपने स्वरूप को पहचानों ,अपने शाश्वत होने को जानो ,शरीर को अपनापन मत मानो ,किराए का मकान भर है ,तुम वो नहीं हो ,न शरीर न सम्बन्ध।

    ईश्वर को उलाहना देती रचना।

    चिदानंद रूपा शिवोहम शिवोहम

    वीरुभाई
    kabirakhadabazarmein.blogspot.com

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  11. अंतर से निकले स्वर है , सुंदर रचना।
    कभी मैंने भी कुछ ऐसा सा रचा था आधा याद है।
    क्यों न रमने आते प्रभु तुम
    इस अतुलित आंगन में
    या कैद कर दिया है
    तुम को तेरे ही मानव ने
    एक बार उतर के आओ
    फिर फिर तुम आवोगे
    मंदिर और शिवालों से
    ज्यादा आनंद पावोगे
    अपनी बनाई रचना क्या
    कभी न तुम को लुभाती .....

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  12. बहुत सुंदर रचना

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  13. बहुद्र सुन्दर रचना

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ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही...

ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही... चले आते हैं, चले जाते हैं... सुबह शाम बिन कहे सुने.. न हाथों का मेल....