खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..

खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..

बहुत लुभावना ,बहुत बड़ा अति आकर्षक संसार लिए..।

थोड़े बड़े हुए खुद जो..छोटे पग लगने लगे..

विस्तार जगत का देखा तो ,नापने वो भगने लगे..।

कुछ तो हाथ में आ जाए, मन भर के व्यापार हो..

लेकिन अनंत की चाह में खुद को ही ठगने लगे..।

प्रेम ऋतु भी आयी ,जीवन में कई बदलाव हुए..

छोटी सी दुनिया बसाने के पारित कई प्रस्ताव हुए..

आखिर में बन ही गई वो प्यारी सी दुनिया जो..

फंसे फंसे से, बुझे बुझे से.. दिखते हैं कुछ कुछ..

खुशियों की चाहत में अजीब से उतार चढ़ाव हुए..।

और बढ़े आगे जो..बहुत अशांत सा मन पाया हमने 

पीछे तो कुछ था ही नहीं, आगे भी ना समझ पाया हमने..

बहुत पढ़ा, बहुत सीखा था और लिखा था पन्नों पर..

अब तो कुछ याद नहीं.. हैं अब शून्यता के खंडहर से..

इमारत तो थी नक्काशी दार, हैं अब जर्जर आधार लिए..

खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..।।

7 comments:

  1. 'लेकिन अनंत की चाह में खुद को ही ठगने लगे'| हाँ, कभी-कभी ऐसी भूल हो जाती है ज़िन्दगी में और बाद में पछताने के सिवा कोई चारा नहीं रहता । मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति है यह आपकी ।

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  2. मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति।

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  3. वाह! यूँ ही खेलते रहें, बस प्यार लिए! सुंदर रचना।

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  4. प्रेम के भ्रम जब खंडित होते हैं तो भीतर यही टीस जगती है | मार्मिक शब्द चित्र प्रिय अर्पिता जी |

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  5. अति सुन्दर सृजन ।

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ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही...

ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही... चले आते हैं, चले जाते हैं... सुबह शाम बिन कहे सुने.. न हाथों का मेल....