औपचारिकताओं से जो..
इतने ना बंधे होते..!
जीवन जीते जी भर के..
ऐसे ना सधे, तने होते..!
हां ये भी जरूरी ही है..
लेकिन उचित अनुपात में....
अंकुश और बंदिशों के काश !
कुछ तो मानक बने होते ।
औपचारिकताओं को ही निभाया हमने..
कुछ ना मन का कर पाया हमने..।
फिर आलस वश कुछ प्रतिकार भी नहीं ..!
मन को छुपा दिया हमने, अब किसी बात का सरोकार नहीं ..
काश होता कुछ अंतर्मन में ,एक अदद.. स्वीकार के सिवा
कोई विरोध हालातों से.. एक जीवन निर्वाह के सिवा..
मन जैसा कुछ .. होता जीवन में ..जीवन से लगाव लिए..
मन ने औपचारिकताएं छोड़ मन के सपने बुने होते..।
अपने तो चिन्हित किए ..जीवन के स्वत: चुनाव ने..
काश ! औपचारिक ना होते इतने..सच में कुछ अपने होते...!!!
सुन्दर सृजन
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (07-02-2021) को "विश्व प्रणय सप्ताह" (चर्चा अंक- 3970) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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"विश्व प्रणय सप्ताह" की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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धन्यवाद आपका
Deleteशामिल करने के लिए..
बहुत सुन्दर
Deleteयथार्थ कहा है आपने । औपचारिकताएं ही बेड़ियां बन जाती हैं और मन का कुछ नहीं करने देतीं । अकसर ऐसी पीड़ा को किसी से साझा भी नहीं किया जा सकता और घुट-घुटकर उम्र गुज़ारनी पड़ती है, ज़िन्दगी से निभाना पड़ता है ।
ReplyDeleteवाह!!! बहुत सुंदर!!!
ReplyDeleteकाश ! औपचारिक ना होते इतने..सच में कुछ अपने होते...!!!बस एक यही मलाल रहता है सबकी जिंदगी में !!
ReplyDeleteपरिचय में अपना नाम भी लिखें , विशेष आग्रह है
ReplyDeleteसुंदर रचना....🌹🙏🌹
ReplyDeleteऔपचारिकताओं से जो..
ReplyDeleteइतने ना बंधे होते..!
जीवन जीते जी भर के..
ऐसे ना सधे, तने होते..!
वाह !!बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति
सही कहा आपने।
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर
ReplyDelete...बहुत सुंदर !!
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना 👏
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