कई लेखों का..
कई कविताओं का..
कई बातों का..
कई मुहावरों का..
कई अभियानों का..
कई उड़ानों का..।
अब चांद पर और क्या !
जो है आकर्षण दुनियाभर का
उस पर भला और गौर क्या..।
गुरुत्वाकर्षण ज्वार भाटे का..
पृथ्वी का कोई मीत या..
दुश्मनी में रची बसी कोई रीत..।
चांद रात के किस्से संभालिए..
आभासी दुनिया से खुद को निकालिए..।
दुनिया दूर की खूबसूरत सी ही है..
देखने को असलियत मन की दूरबीन निकालिए..।
बदसूरत होना भी यूं तो कोई पाप पुण्य का लेखा नहीं..।
मन के स्वीकार्य हैं कभी सुलझे हुए कभी उलझे हुए..
कभी किसी ने मन से नहीं देखा, कभी मन देखा नहीं..।।
सुंदर सृजन।
ReplyDeleteसादर।
बदसूरत होना भी यूं तो कोई पाप पुण्य का लेखा नहीं..।
ReplyDeleteमन के स्वीकार्य हैं कभी सुलझे हुए कभी उलझे हुए..
कभी किसी ने मन से नहीं देखा, कभी मन देखा नहीं..।।
स्पर्श करती रचना। शुभकामनाएँ।
बहुत सुन्दर और सार्थक।
ReplyDeleteदूर के ढोल तो सुहावने ही होते हैं अर्पिता जी फिर चाहे वह दूर स्थित वस्तु चांद ही क्यों न हो ? अब रही बात मन से देखने और मन को देखने की तो मन को वही देख पाएगा जो मन से देखेगा ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteदेखने को असलियत मन की दूरबीन निकालिए..।
ReplyDeleteबदसूरत होना भी यूं तो कोई पाप पुण्य का लेखा नहीं..।
मन के स्वीकार्य हैं कभी सुलझे हुए कभी उलझे हुए..
कभी किसी ने मन से नहीं देखा, कभी मन देखा नहीं..।।
दिल को छूती बहुत ही सुंदर रचना।
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteVery heart❤️ touching poetry.
ReplyDeleteArpita ji keep writing...
I like your all poetry
Thanks 😊
शानदार कविता...
ReplyDeleteबहुत खूब अर्पिता जी। चाँद पर एक नज़रिया ये भी होगा, सोचा न था! दूरियों में बहुत आकर्षण होता है। चाँद को भी इसका खूब लाभ मिला है।
ReplyDeleteउत्कृष्ट और अदभुत भावपूर्ण प्रस्तुति....
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