प्रेम भी कोई चीज़ है क्या !!
करने को ,कर गुजने को !!
एहसास कहूं तो झूठा है..
दिमाग ने दिल को लूटा है..।
मतलबी जब लोग सभी..
ये बंधन कैसे दिलों का हैं !!
कितने उदाहरण है घूमते ..
वो जो थे कभी माथे को चूमते..।
चिता जलाकर भूल गए वो
रुखसत हुए है हम दुनिया से सिर्फ
रिश्ता तो नहीं टूटा है..।
मै हमारे तुम्हारे बच्चों में अभी जिंदा हूं
प्रेम था जिससे तुमको मैं वही वृंदा हूं..
कुंवारे बन के ले आए एक नए प्रेम को..
अब तो यकीनन कहीं प्रेम नहीं..
शरीर से बंधा मन होगा ये
मन से मन का मिलन नहीं..
प्रेम है झूठी परिकल्पना..
प्रेम से भरा यहां कोई मन नहीं..।।
बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteप्रणय दिवस के अवसर पर सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया और सार्थक सृजन के लिए आपको बधाई और शुभकामनाये। सादर।
ReplyDeleteअत्यंत गहन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteसुन्दर रचना..आज के परिदृश्य में प्रभावी भी..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रशंसनीय रचना
ReplyDeleteआपकी अभिव्यक्ति पीड़ा से युक्त है । निजी पीड़ा (यदि कोई है) को अस्थाई रूप से विस्मृत कर के निरपेक्ष भाव से देखेंगी तो पाएंगी कि सच्चे प्रेमियों की प्रजाति अभी लुप्त नहीं हुई है । हां, ऐसे लोग अब बहुत कम रह गए हैं । पर यह बात भी मनुष्यों पर ही लागू है, निर्दोष तथा निश्छल पशु-पक्षियों पर नहीं ।
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी सृजन ।
ReplyDeleteदिल के भावों को बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त किया है आपने।
ReplyDeleteजो भी नाम दे दो पर ये कुछ तो है .. जुड़ाव इसी तो है ...
ReplyDeleteसुन्दर भावपूर्ण लिखा है ...
वो जो थे कभी माथे को चूमते..।
ReplyDeleteचिता जलाकर भूल गए वो ..
चिंतनपरक है आपकी रचना। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीया....
बहुत सुंदर अंदाज़ में लिखी बेहतरीन रचना
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