यदि कोई विवाद ना हो.. मुझे कोई प्रतिवाद ना हो..

यदि कोई विवाद ना हो..

मुझे कोई प्रतिवाद ना हो..।

छेड़ दिया है जो शंखनाद ..

युद्ध की फिर क्यों शुरुवात ना हो..।

ये अतिक्रमण तुम्हारा..!!

मौन हमारा कब तक होगा..

ये दमन हमारा..तुम्हारे द्वारा..

क्योंकर ना प्रतिउत्तर होगा..।

सुख शांति अगर नहीं पसंद तुम्हें..

कब तक ना समर होगा..!

हमको इससे इंकार नहीं..

कि मानवता से प्यार नहीं..

मानव जो तुम रह ना सके..

हमसे भी ना अब सबर होगा..।

वैसे तो समझो इतनी बात..

अपनी अपनी हद में रहो. 

हम नहीं चाहते युद्ध कभी..

तुम भी समझो कि..कुछ भी..

किसी का अप्रिय ना हो..।


15 comments:

  1. सुख शांति अगर नहीं पसंद तुम्हें..

    कब तक ना समर होगा..!

    हमको इससे इंकार नहीं..

    कि मानवता से प्यार नहीं..

    मानव जो तुम रह ना सके..

    हमसे भी ना अब सबर होगा..।
    सही कहा दी। कभी न कभी तो सब्र का बांध टूटेगा ही।

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  2. वाह....
    बहुत सुंदर रचना

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  3. इस रचना को पढ़ कर लग रहा कि पड़ोसी देशों की तसर्फ इशारा है ।

    सार्थक कृति ।

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  4. बहुत ही सुंदर और प्रभावी रचना के लिये आपका बहुत आभार

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  5. प्रिय अर्पिता आपकी रचना कई मोर्चे पर लोहा लेने के लिए तैयार है.
    सारगर्भित सृजन के लिए बहुत शुभकामनाएं..

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  6. सार्थक और सारगर्भित रचना। आपके निशाने पर घर के ही लोग लगते हैं।

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  7. बात तो ठीक ही कही है अर्पिता जी आपने ।

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  8. बहुत बढ़िया।

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  9. हद मैं रहना भी सिखाना पड़ता है!

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  10. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति,अर्पिता।

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  11. वीर रस में चेतावनी, वाह ...वैसे तो समझो इतनी बात..

    अपनी अपनी हद में रहो.... धन्य हो बहन

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  12. वाह!बहुत सुंदर वीर रस से सराबोर सृजन।
    सादर

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  13. बहुत खूब। चेतावनी देने का एक अलग सा अंदाज़। स्वाभिमान पर कोई आघात ना हो तब तक प्रतिघात नहीं। उसके बाद यही कुछ। B

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  14. बहुत बहुत सुन्दर

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ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही...

ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही... चले आते हैं, चले जाते हैं... सुबह शाम बिन कहे सुने.. न हाथों का मेल....