नाम के लिए मरते हैं ये.
नाम के लिए मरते हैं वो..
नाम के लिए मरते हैं ये.
नाम के लिए मरते हैं वो..
यदि कोई विवाद ना हो..
मुझे कोई प्रतिवाद ना हो..।
छेड़ दिया है जो शंखनाद ..
युद्ध की फिर क्यों शुरुवात ना हो..।
ये अतिक्रमण तुम्हारा..!!
मौन हमारा कब तक होगा..
ये दमन हमारा..तुम्हारे द्वारा..
क्योंकर ना प्रतिउत्तर होगा..।
सुख शांति अगर नहीं पसंद तुम्हें..
कब तक ना समर होगा..!
हमको इससे इंकार नहीं..
कि मानवता से प्यार नहीं..
मानव जो तुम रह ना सके..
हमसे भी ना अब सबर होगा..।
वैसे तो समझो इतनी बात..
अपनी अपनी हद में रहो.
हम नहीं चाहते युद्ध कभी..
तुम भी समझो कि..कुछ भी..
किसी का अप्रिय ना हो..।
खूबसूरत..नहीं थी मैं..
तुम भी मनोहर नहीं थे..।
प्रेम भी कोई चीज़ है क्या !!
करने को ,कर गुजने को !!
एहसास कहूं तो झूठा है..
दिमाग ने दिल को लूटा है..।
मतलबी जब लोग सभी..
ये बंधन कैसे दिलों का हैं !!
कितने उदाहरण है घूमते ..
वो जो थे कभी माथे को चूमते..।
चिता जलाकर भूल गए वो
रुखसत हुए है हम दुनिया से सिर्फ
रिश्ता तो नहीं टूटा है..।
मै हमारे तुम्हारे बच्चों में अभी जिंदा हूं
प्रेम था जिससे तुमको मैं वही वृंदा हूं..
कुंवारे बन के ले आए एक नए प्रेम को..
अब तो यकीनन कहीं प्रेम नहीं..
शरीर से बंधा मन होगा ये
मन से मन का मिलन नहीं..
प्रेम है झूठी परिकल्पना..
प्रेम से भरा यहां कोई मन नहीं..।।
जो बंदिशे नहीं होंगी..
निश्चल प्रेम भी नहीं होगा..।
मिलन में कोई मतलब हो सकता है..
ना मिले ..और प्रेम हो जाय सदा के लिए..
बस वही तो मन का प्रेम होगा..।
प्रेम अगर आलिंगन है..
अधरों का मिलन है..
और समाजिक व्यवहार नहीं..
निश्चित ही ये कुछ और है..
ये मौलिक प्यार नहीं..
मौलिकता को समझोगे कैसे ?
नैतिक जब मन के उदगार नहीं..
वो जो फांसते हैं मीठी मीठी बातों से..
उनको समझाना मुश्किल है..
तुम ही समझो हे प्रिया..
प्रेम अवश्य है जगत में..
तुम्हारे लिए कहीं छुपा..
छुपा हुआ हो मकसद जिनका..
वो तुम्हारा प्यार नही...।।।।।
तुम्हारी हमारी ना सही किसी की तो होगी..
ना रही ज़िन्दगी अपनी फिर भी ..।
बाकी ज़िन्दगी होगी ..
तुम कहने को कुछ चूक जाओगे..
हम सुनने से कुछ रह जाएंगे..
बातें फिर भी यही सब ..
आगे पीछे किसी ने कही होंगी..।
मन व्याकुल हो कर शिथिल हो गया जो..
सब कुछ व्यर्थ सा लगता है..।
अब आंखे मूंद ही लें..लेकिन
कुछ सोच सोच कर मन में..
शेष समर चलता है..।
बहुत जिया, जी भर जिया..
सब काम काज निपटा भी दिए..।
जो था आवश्यक संसार व्यवहार..
सब बेड़ा पार लगा भी दिए..।
बूढ़े तन में लेकिन डूबा मन ..
कई पीढ़ियों का संसार रचता है..।।
खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..
बहुत लुभावना ,बहुत बड़ा अति आकर्षक संसार लिए..।
थोड़े बड़े हुए खुद जो..छोटे पग लगने लगे..
विस्तार जगत का देखा तो ,नापने वो भगने लगे..।
कुछ तो हाथ में आ जाए, मन भर के व्यापार हो..
लेकिन अनंत की चाह में खुद को ही ठगने लगे..।
प्रेम ऋतु भी आयी ,जीवन में कई बदलाव हुए..
छोटी सी दुनिया बसाने के पारित कई प्रस्ताव हुए..
आखिर में बन ही गई वो प्यारी सी दुनिया जो..
फंसे फंसे से, बुझे बुझे से.. दिखते हैं कुछ कुछ..
खुशियों की चाहत में अजीब से उतार चढ़ाव हुए..।
और बढ़े आगे जो..बहुत अशांत सा मन पाया हमने
पीछे तो कुछ था ही नहीं, आगे भी ना समझ पाया हमने..
बहुत पढ़ा, बहुत सीखा था और लिखा था पन्नों पर..
अब तो कुछ याद नहीं.. हैं अब शून्यता के खंडहर से..
इमारत तो थी नक्काशी दार, हैं अब जर्जर आधार लिए..
खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..।।
औपचारिकताओं से जो..
इतने ना बंधे होते..!
जीवन जीते जी भर के..
ऐसे ना सधे, तने होते..!
हां ये भी जरूरी ही है..
लेकिन उचित अनुपात में....
अंकुश और बंदिशों के काश !
कुछ तो मानक बने होते ।
औपचारिकताओं को ही निभाया हमने..
कुछ ना मन का कर पाया हमने..।
फिर आलस वश कुछ प्रतिकार भी नहीं ..!
मन को छुपा दिया हमने, अब किसी बात का सरोकार नहीं ..
काश होता कुछ अंतर्मन में ,एक अदद.. स्वीकार के सिवा
कोई विरोध हालातों से.. एक जीवन निर्वाह के सिवा..
मन जैसा कुछ .. होता जीवन में ..जीवन से लगाव लिए..
मन ने औपचारिकताएं छोड़ मन के सपने बुने होते..।
अपने तो चिन्हित किए ..जीवन के स्वत: चुनाव ने..
काश ! औपचारिक ना होते इतने..सच में कुछ अपने होते...!!!
हे ईश्वर ! तुम रहते कहां हो ??
हर जगह मौजूद हो ..ऐसा पता है मुझे..
देख लूं तुम्हें.. दिखते कहां हो??
मैंने सुना..तप करना होगा ..
तुम तक पहुंच सकूं..
संसार से उबरना होगा..।
पर हैं दावा करते लोग..
कुछ लोग हैं तुम्हारे खास !
कुछ घर हैं ठिकाने तुम्हारे..
लेकिन मुझे क्यूं है अविश्वास ..!
आकर तुम्हीं बताओ अब..टिकते कहां हो??
नाम तुम्हारा अपनी अपनी भाषा में,
रखे हैं रूप भी अलग अलग ..
अपनी अपनी परिभाषा में,
मैं भी नाम रख लूं कुछ और तुम्हारा..
मेरे प्रयोजनों से तुम !!
संज्ञा रखते कहां हो ??
स्त्री पुरुष.. भी क्या तुम करते हो !!
अर्धनारीश्वर हो ना तुम ..
फिर भेद के क्यूं ..दुनिया में रंग भरते हो..??
विविध तुम्हारी दुनिया सिर्फ..
भेद नहीं कल्पना तुम्हारी..
इस अज्ञान की दुनिया में..
ये बात बतलाने को..
तुम विचरते कहां हो ??
ये बिन बात का तकल्लुफ !!
खत्म करो अब सब वास्ते..
पुल ही उड़ा डालो मतलब के..
खुद तक बंद करो सब रास्ते.. ।
ये खुद की दुनिया भी मुकम्मल है..
किसी का दख़ल क्यों स्वीकारा जाए ??
एहसान जताते रहते हैं.. उपकार के नाम पर..
ऐसे ख़ुदाओं को क्यूं मदद के लिए पुकारा जाए !!
भूल जाओ चेहरे मतलबी और उन तक ही दौड़ते रहना..
तकलीफ तो यूं भी हैं..पूरी बिखोरो ये अधूरी मुस्कुराहटें..।
ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही... चले आते हैं, चले जाते हैं... सुबह शाम बिन कहे सुने.. न हाथों का मेल....