हर जुबान कहती है..हर नज़र कहती है..
कहीं उड़ता नहीं..मेरा मन..
कहीं उड़ता नहीं मेरा मन..
तुम्हारे हृदय के द्वार पर ..
ये बैठा रहता है..
कभी जो खुलेंगे द्वार..
दर्शन को तुम्हारे..
वो क्षण सोचा करता है..
मैं तो नश्वर,
मात्र एक किश्वर..
हूं मैं तो सदा से अश्वर..
तुम तो अद्वितीय, अप्रतिम..
हे ईश्वर..कई नामों वाले..
हर एक नाम से तुम्हें ..
जपता रहता है..
कहीं उड़ता नहीं मेरा मन..
तुम्हारे हृदय के द्वार पर.
ये बैठा रहता है..
कैसे मैं शशक्त बनूं..
कैसे मैं शशक्त बनूं..
तुम पर जो इतनी आसक्त हूं..!!
मां जो हूं मैं तुम्हारी..
कटु बातों को भी भुला देती हूं..
उम्र के हर पड़ाव में..
बिल्कुल ना मैं सख्त हूं..
कैसे मैं शसक्त बनूं..
तुम पर जो इतनी आसक्त हूं..!!
बहन जो हूं मैं तुम्हारी..
भाग खुद का मैं तुम्हें थमा देती हूं..
लोलुप ना कोई लालस्त हूं..
कैसे मैं सशक्त बनूं..
तुम पर जो इतनी आसक्त हूं..!!
पत्नी जो हूं मैं तुम्हारी...
हर तरह से तुम्हारी भक्त हूं..
कैसे मैं शशक्त बनूं..
तुम पर जो इतनी आसक्त हूं..
पुत्री रूप में..
हर बात तुम्हारी पालित करने को..
मैं तो अभयस्त हूं..
कैसे मैं शशक्त बनूं..
तुम पर जो इतनी आशक्त हूं..!!
स्नेहिता मैं जो हूं..
स्नेही ही सिर्फ मैं हूं..
कलुषित भावनाओं से ..
मैं तो ना ग्रस्त हूं..
कैसे मैं शशक्त बनूं..
तुम पर जो इतनी आसक्त हूं..!!!
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समान विकास, समुचित सम्मान..
समान स्नेह, उपयुक्त उत्थान..
इस बात का बस मान रख लो..
मैं हूं जो आरंभ तुम्हारा..
कभी सहचरिनी, कभी सहारा..
तुम संग पलती बढ़ती..
और तुम्हारा ही रक्त हूं..
शशक्त मैं हो जाऊंगी..
बस तब ही जब ..
तुम्हारी तरफ से मैं..
आश्वस्त हूं..
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दफ्तर से घर जब लौटकर..
दफ्तर से घर जब लौटकर..
मै आती हूं..
बच्चे का मंगाया हुआ..
कोई ना कोई सामान लाती हूं..
कभी कभी नहीं भी ला पाती..
फिर भी संतोष उनके मुख पर पाती हूं..
पर सोचकर वो खुशी..असीम..
करती हूं प्रयास ..
ना आऊं कभी मैं खाली हाथ..
एक टॉफी या चॉकलेट..
की बात नहीं..
बच्चों का दिनभर का इंतजार है..
घर में चाहे सब कुछ हो..
पर वो एक नई चीज़ ..
जो हाथ में मेरे होती है..
नई खुशी नई भूख ..
तृप्त मन ..पूर्ण खुशी..
अभिव्यक्ति से परे..
थोड़ा सा ही कुछ पाकर ..
चहकते बच्चे मेरे..।।
थोड़ा तो आराम दो..
कम से कम चाय बनाना सीख लो..
फरमानों को थोड़ा विराम दो..
हे पुरुष समाज !!
हमें थोड़ा तो आराम दो..
घर की लक्ष्मी ..
नाम की..क्यूं !!
हमें मुकम्मल नाम दो..
हे पुरुष समाज !!
हमें कुछ तो आराम दो..
अब तो हमारी भी हिस्सेदारी..
घर का खर्च चलाने में..
वापस जो घर आऊं तो..
मेरे जैसी मुस्कुराहट तुमको..
और सुनहरी शाम दो..
हे पुरुष समाज !!
हमें भी आराम दो..
दर्द मुझे भी..
दिनभर की थकी हारी..
मै भी तुम जैसी..
कुछ तो संज्ञान लो..!
हे पुरुष समाज !!
थोड़ा तो आराम दो..
फरमानों को विराम दो..!!
और मैं भी हूं...
रिश्ते नाते..
और रिश्तेदार..।
लोग अपने..
और घर परिवार..।
भूल ना जाना आदतन !!
उनमें एक मैं भी हूं..।
मै भी हूं ..
हर पूजा की साथी..
साथी हर कदम की..
साथी मैं हर वचन की
मन के अधूरेपन की..
झुठला ना देना आदतन..
एक जीवन..
मैं भी हूं..।
स्वागत प्रियजन का..
उमंगों से भरे..
उत्सव तीज त्योहार..
खुशियां हों अपार..
ठुकरा ना देना आदतन..
एक मन मैं भी हूं..!
स्वीकार कर लो..जो सभ्य और सही हो..
स्वीकार कर लो..
जो सभ्य और सही हो..
सीखने में शर्म कैसी ?
चाहे बात छोटे बच्चे ही ने कही हो।
तू तू मैं के आलाप..
क्योंकर करें हम ऐसे जाप..
उम्र का..
हैसियत का मसला ही नहीं है..
ये आपकी जुबान का..
किसी की शक्सियत की पहचान का..
तरीका है..
"आप"के संबोधन का ..
कोई विकल्प नहीं है..
सभी हैं गुरु किसी ना किसी तरह. .
यहां कोई भी अल्प नहीं है..।।
यहां कोई भी अल्प नहीं है..।।
ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही...
ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही... चले आते हैं, चले जाते हैं... सुबह शाम बिन कहे सुने.. न हाथों का मेल....
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वो जो था कभी घर आंगन..... वो आज मकान बिकाऊ है. !! क्योंकर इतना हल्कापन.....!! रिश्तों का ये फीका मन......!! सब कुछ कितना चलताऊ है !! खूब कभी...
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अनुबंध मन के ........तोड़कर जाएंगे कहां .. लौटेंगे यहीं..मन के आकर्ष झुठलाएंगे कहां.. व्यथित होंगे.............तलाशेंगे तुम्हीं को.. वेदना ह...
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खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए.. बहुत लुभावना ,बहुत बड़ा अति आकर्षक संसार लिए..। थोड़े बड़े हुए खुद जो..छोटे पग लगने लगे.. विस्तार...