हे ईश्वर ! तुम रहते कहां हो ??
हर जगह मौजूद हो ..ऐसा पता है मुझे..
देख लूं तुम्हें.. दिखते कहां हो??
मैंने सुना..तप करना होगा ..
तुम तक पहुंच सकूं..
संसार से उबरना होगा..।
पर हैं दावा करते लोग..
कुछ लोग हैं तुम्हारे खास !
कुछ घर हैं ठिकाने तुम्हारे..
लेकिन मुझे क्यूं है अविश्वास ..!
आकर तुम्हीं बताओ अब..टिकते कहां हो??
नाम तुम्हारा अपनी अपनी भाषा में,
रखे हैं रूप भी अलग अलग ..
अपनी अपनी परिभाषा में,
मैं भी नाम रख लूं कुछ और तुम्हारा..
मेरे प्रयोजनों से तुम !!
संज्ञा रखते कहां हो ??
स्त्री पुरुष.. भी क्या तुम करते हो !!
अर्धनारीश्वर हो ना तुम ..
फिर भेद के क्यूं ..दुनिया में रंग भरते हो..??
विविध तुम्हारी दुनिया सिर्फ..
भेद नहीं कल्पना तुम्हारी..
इस अज्ञान की दुनिया में..
ये बात बतलाने को..
तुम विचरते कहां हो ??