बदलाव का ये दौर है..
और ये एक वक्त है महज़..!
रहेगी तुम्हारी.. ना हमारी ही...
देखो होगा निर्माण कुछ..
होगा कुछ तहस नहस..!
ओर तुम्हारा भी हो सकता है..
छोर हमारा भी हो सकता है..!
घमंड ना करना बस मित्र तुम..
विप्लव पर अब कैसी बहस !!
डूब ही गए तो ..मिलेंगे उबरकर ..
फिर पाषाण पर लिखेंगे नये अक्षर ..।
देखो अबकी बार..एक ही भाषा रखना..
एक जैसा मन..बोलना चलना उठना..।
लकीरें ना खीचना दरार सी..
जो भी हो बात .. हो बस प्यार सी..।
रखना ऐसी रफ्तार..ना बदले फिर संसार..
वक्त के दर्पण तो हों..प्रतिबिंब ना हों लेकिन ...
आभासी, मिथ्या और असार ..….......।।।।।।
सही कहा आपने बदलाव के दौर में सबकी उम्मीदें बनी रहें।
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(३०-०१-२०२१) को 'कुहरा छँटने ही वाला है'(चर्चा अंक-३९६२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
जी धन्यवाद आमंत्रित करने के लिए..अवश्य शामिल होंगे
Deleteदेखो अबकी बार..एक ही भाषा रखना..
ReplyDeleteएक जैसा मन..बोलना चलना उठना..।
लकीरें ना खीचना दरार सी..
जो भी हो बात .. हो बस प्यार सी..।
बहुत बहुत सराहनीय
विप्लव पर अब कैसी बहस ? और ऐसे हाल में घमंड किस बात का ? बहुत अच्छी रचना ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति ।
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