हां.. होता है बिल्कुल ऐसा..
कुछ अधूरा सा गुजर जाता है..
कुछ पूरा सा रह जाता है गुजरने को..।
बीत जाती है हर शाम छोड़कर...
कुछ ना कुछ करने को..।
मन के साथ कोई ना कोई...
समझौता होता रहता है..।
टूटते रहते हैं फिर अनुबंध कुछ..
पाने की आस में..अनुच्छेद कई लिखे जाते हैं..
बिंदुवार लेकिन सब खोता रहता है..।
बताओ तो भला ये कैसी रही..!!
हमने भी अपनी छुपा ली..
तुमने भी ना अपनी कहीं...!
अनिर्णीत इस सभा में..
निर्णय करेगा कौन ..!!!!!!
वो इन्द्रियों रहित बस सोता रहता है !!!!!!!
मर्मस्पर्शी भाव।
ReplyDeleteयह अधूरापन ही ज़िन्दगी की सच्चाई है । और यही सच्चाई इस कविता के एक-एक शब्द से झांकती है ।
ReplyDeleteअति सुन्दर ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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