हां.. होता है बिल्कुल ऐसा..

हां.. होता है बिल्कुल ऐसा..

कुछ अधूरा सा गुजर जाता है..

कुछ पूरा सा रह जाता है गुजरने को..।

बीत जाती है हर शाम छोड़कर...

कुछ ना कुछ करने को..।

मन के साथ कोई ना कोई...

समझौता होता रहता है..।

टूटते रहते हैं फिर अनुबंध कुछ..

पाने की आस में..अनुच्छेद कई लिखे जाते हैं..

बिंदुवार लेकिन सब खोता रहता है..।

बताओ तो भला ये कैसी रही..!!

हमने भी अपनी छुपा ली..

तुमने भी ना अपनी कहीं...!

अनिर्णीत इस सभा में..

निर्णय करेगा कौन ..!!!!!!

वो इन्द्रियों रहित बस सोता रहता है !!!!!!!

4 comments:

  1. मर्मस्पर्शी भाव।

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  2. यह अधूरापन ही ज़िन्दगी की सच्चाई है । और यही सच्चाई इस कविता के एक-एक शब्द से झांकती है ।

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  3. अति सुन्दर ।

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ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही...

ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही... चले आते हैं, चले जाते हैं... सुबह शाम बिन कहे सुने.. न हाथों का मेल....