मैंने लिखी थी एक कविता..
एक सुनहरे कागज पर..
तुमको अर्पण कर दी थी..
तुमने कागज समझ यूं ही उड़ा दी..
मेरी भेंट शायद तुम्हारी समझ से परे थी..
तुमने बताया भी नहीं..
कि तुम्हें कुछ समझ नहीं आया..
या निम्न समझ लिया उसे..
कुछ तो बताना था..
हां या ना का निर्णय सुनाना था..
तुम्हारे शून्य से उत्तर ने..
अनगिनत प्रस्ताव मुस्कुराहट के..
छीन लिए मुझसे..
मैं लिख लेती और एक कविता..
यदि तुम स्पष्ट होते..
तुमने मुझे एक जगह क्यों रोक दिया..??
चलो कोई बात नहीं..
आज जो खुद से खुद को जान गए हैं..
आपके मन से दूर खुद को पहचान गए हैं
मेरी कविता के अब से प्रतिमान नए हैं..
तुमने साधक चुन लिया कोई अन्य..
अब से मेरे भी भगवान नए हैं .. !!!!!!