मिट गया है जो अब चलन मन का..।
अब नहीं मिलेगा कोई मासूम सा मन.
जज़्बात हो गए हैं जो तिनका तिनका..।
मैं जो अनुरागी हो भी जाऊं..
कहां से मैं अनुरागित मन पाऊं..!
हर कोई है अपने अपने स्वार्थ लिए..
कोई नहीं है यहां निश्चल सा..।
मैं अपना लेती हूं सहर्ष ही..
हर कोई अपना लगता है..।
फिर खुलते हैं छुपे हुए मतलब..
हर कोई बस छलता है..।
कोई नहीं मिलता यहां अपना सा..।
फिर भी आशावान मन मेरा..
कोई अवश्य होगा..निश्चल और सहज..
बदलाव का दौर है..और है ये एक वक्त महज..।।
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteअति सुन्दर ।
ReplyDeleteप्रेम स्वंय इक़ भरी हुई गगरी
ReplyDeleteजिसके बस में नहीं है छलकना
छलक जाती है पनघट में
किसी भी जाने अनजाने पर
अहसासों से लबरेज हृदय स्पर्शी कृति.
ReplyDeleteफिर खुलते हैं छुपे हुए मतलब, हर कोई बस छलता है । सीधे-सच्चे मनुष्य के जीवन का कटु यथार्थ यही है । इसी के साथ निभाना होता है । और जैसा कि आपने कह भी दिया है, भविष्य के लिए आशान्वित रहना होता है । न रहें तो जियें कैसे ? बहुत अच्छी रचना है यह आपकी ।
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