चांद विषय है...
प्रेम भी कोई चीज़ है क्या !!
प्रेम भी कोई चीज़ है क्या !!
करने को ,कर गुजने को !!
एहसास कहूं तो झूठा है..
दिमाग ने दिल को लूटा है..।
मतलबी जब लोग सभी..
ये बंधन कैसे दिलों का हैं !!
कितने उदाहरण है घूमते ..
वो जो थे कभी माथे को चूमते..।
चिता जलाकर भूल गए वो
रुखसत हुए है हम दुनिया से सिर्फ
रिश्ता तो नहीं टूटा है..।
मै हमारे तुम्हारे बच्चों में अभी जिंदा हूं
प्रेम था जिससे तुमको मैं वही वृंदा हूं..
कुंवारे बन के ले आए एक नए प्रेम को..
अब तो यकीनन कहीं प्रेम नहीं..
शरीर से बंधा मन होगा ये
मन से मन का मिलन नहीं..
प्रेम है झूठी परिकल्पना..
प्रेम से भरा यहां कोई मन नहीं..।।
जो बंदिशे नहीं होंगी.. निश्चल प्रेम भी नहीं होगा..
जो बंदिशे नहीं होंगी..
निश्चल प्रेम भी नहीं होगा..।
मिलन में कोई मतलब हो सकता है..
ना मिले ..और प्रेम हो जाय सदा के लिए..
बस वही तो मन का प्रेम होगा..।
प्रेम अगर आलिंगन है..
अधरों का मिलन है..
और समाजिक व्यवहार नहीं..
निश्चित ही ये कुछ और है..
ये मौलिक प्यार नहीं..
मौलिकता को समझोगे कैसे ?
नैतिक जब मन के उदगार नहीं..
वो जो फांसते हैं मीठी मीठी बातों से..
उनको समझाना मुश्किल है..
तुम ही समझो हे प्रिया..
प्रेम अवश्य है जगत में..
तुम्हारे लिए कहीं छुपा..
छुपा हुआ हो मकसद जिनका..
वो तुम्हारा प्यार नही...।।।।।
तुम्हारी हमारी ना सही किसी की तो होगी..
तुम्हारी हमारी ना सही किसी की तो होगी..
ना रही ज़िन्दगी अपनी फिर भी ..।
बाकी ज़िन्दगी होगी ..
तुम कहने को कुछ चूक जाओगे..
हम सुनने से कुछ रह जाएंगे..
बातें फिर भी यही सब ..
आगे पीछे किसी ने कही होंगी..।
मन व्याकुल हो कर शिथिल हो गया जो..
सब कुछ व्यर्थ सा लगता है..।
अब आंखे मूंद ही लें..लेकिन
कुछ सोच सोच कर मन में..
शेष समर चलता है..।
बहुत जिया, जी भर जिया..
सब काम काज निपटा भी दिए..।
जो था आवश्यक संसार व्यवहार..
सब बेड़ा पार लगा भी दिए..।
बूढ़े तन में लेकिन डूबा मन ..
कई पीढ़ियों का संसार रचता है..।।
प्रिय तुम्हारी भेंट...
छत से दूसरी छत के आज नजारे देखे हमने.
खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..
खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..
बहुत लुभावना ,बहुत बड़ा अति आकर्षक संसार लिए..।
थोड़े बड़े हुए खुद जो..छोटे पग लगने लगे..
विस्तार जगत का देखा तो ,नापने वो भगने लगे..।
कुछ तो हाथ में आ जाए, मन भर के व्यापार हो..
लेकिन अनंत की चाह में खुद को ही ठगने लगे..।
प्रेम ऋतु भी आयी ,जीवन में कई बदलाव हुए..
छोटी सी दुनिया बसाने के पारित कई प्रस्ताव हुए..
आखिर में बन ही गई वो प्यारी सी दुनिया जो..
फंसे फंसे से, बुझे बुझे से.. दिखते हैं कुछ कुछ..
खुशियों की चाहत में अजीब से उतार चढ़ाव हुए..।
और बढ़े आगे जो..बहुत अशांत सा मन पाया हमने
पीछे तो कुछ था ही नहीं, आगे भी ना समझ पाया हमने..
बहुत पढ़ा, बहुत सीखा था और लिखा था पन्नों पर..
अब तो कुछ याद नहीं.. हैं अब शून्यता के खंडहर से..
इमारत तो थी नक्काशी दार, हैं अब जर्जर आधार लिए..
खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..।।
ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही...
ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही... चले आते हैं, चले जाते हैं... सुबह शाम बिन कहे सुने.. न हाथों का मेल....
-
वो जो था कभी घर आंगन..... वो आज मकान बिकाऊ है. !! क्योंकर इतना हल्कापन.....!! रिश्तों का ये फीका मन......!! सब कुछ कितना चलताऊ है !! खूब कभी...
-
अनुबंध मन के ........तोड़कर जाएंगे कहां .. लौटेंगे यहीं..मन के आकर्ष झुठलाएंगे कहां.. व्यथित होंगे.............तलाशेंगे तुम्हीं को.. वेदना ह...
-
खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए.. बहुत लुभावना ,बहुत बड़ा अति आकर्षक संसार लिए..। थोड़े बड़े हुए खुद जो..छोटे पग लगने लगे.. विस्तार...