जो बंदिशे नहीं होंगी.. निश्चल प्रेम भी नहीं होगा..

जो बंदिशे नहीं होंगी..

निश्चल प्रेम भी नहीं होगा..।

मिलन में कोई मतलब हो सकता है..

ना मिले ..और प्रेम हो जाय सदा के लिए..

बस वही तो मन का प्रेम होगा..।

प्रेम अगर आलिंगन है..

अधरों का मिलन है..

और समाजिक व्यवहार नहीं..

निश्चित ही ये कुछ और है..

ये मौलिक प्यार नहीं..

मौलिकता को समझोगे कैसे ?

नैतिक जब मन के उदगार नहीं..

वो जो फांसते हैं मीठी मीठी बातों से..

उनको समझाना मुश्किल है..

तुम ही समझो हे प्रिया..

प्रेम अवश्य है जगत में..

तुम्हारे  लिए कहीं छुपा..

छुपा हुआ हो मकसद जिनका..

वो तुम्हारा प्यार नही...।।।।।

तुम्हारी हमारी ना सही किसी की तो होगी..

तुम्हारी हमारी ना सही किसी की तो होगी..

ना रही ज़िन्दगी अपनी फिर भी ..।

बाकी ज़िन्दगी होगी ..

तुम कहने को कुछ चूक जाओगे..

हम सुनने से कुछ रह जाएंगे..

बातें फिर भी यही सब ..

आगे पीछे किसी ने कही होंगी..।

मन व्याकुल हो कर शिथिल हो गया जो..

सब कुछ व्यर्थ सा लगता है..।

अब आंखे मूंद ही लें..लेकिन

कुछ सोच सोच कर मन में..

शेष समर चलता है..।

बहुत जिया, जी भर जिया..

सब काम काज निपटा भी दिए..।

जो था आवश्यक संसार व्यवहार..

सब बेड़ा पार लगा भी दिए..।

बूढ़े तन में लेकिन डूबा मन ..

कई पीढ़ियों का संसार रचता है..।।

प्रिय तुम्हारी भेंट...

प्रिय तुम्हारी भेंट..
आज पुष्पों से आच्छादित है..।
यदि ये एक फूल होता मात्र..
या कोई गुलदस्ता ..
कुछ रोज़ में मुरझा गया होता..
मुश्किल भी होता बचाना उसे..
सोचो कैसे वो भला बचा होता..।
लेकिन गमले में लगा ये पौधा..
मेरे सामर्थ्य में है इसे सींचना..
पालना , उसे बढ़ते देखना..।
इसकी टहनी से मैंने और भी..
हरियाली प्रेम की पाई है..।
नई ऊर्जा हर एक कली के साथ..
ये नहीं कुछ देर का साथी..
बिल्कुल तुम्हारे प्रेम की तरह..
ये भी कालजयी है..।।

छत से दूसरी छत के आज नजारे देखे हमने.

छत से दूसरी छत के आज नजारे देखे हमने..
कुछ बच्चों को खेलते देखा..कुछ को बैठे शांत..
फूलों के गमले, मुरझाईं कुछ बेलें, कुछ जीवन विश्रांत..
कुछ स्त्रियों के केश मेहंदी में डूबे हुए..
छुपाने की,रंगने की,  क्योंकर चाहत ?
कुछ बीते हुए को पाने की शायद थी अकुलाहट..
कुछ पुरुषों को बैठे देखा भिन्न भिन्न अवेगों में..
अखबारों के पन्ने कुछ ..उन अलसाई आंखों में..
भविष्य के कुछ सपने देखे..साथ बैठे कुछ अपने देखे..
परिवार देखे कुछ..कुछ अकेलेपन के दर्पण देखे..
इस सर्दी की धूप में ........छत पर खड़े हुए .....
देखे कुछ ताजातरीन रिश्ते..कुछ औंधे मुंह पड़े हुए..
खुद की छत पर भी देखा कुछ, मन भर गया..
दृश्य इधर उधर के , कभी कभी मेरे अपने घर के..
मन ने जो देखा आंखों के आइने से, चुपके से..
धीरे धीरे बोझिल बोझिल मन सीढ़ियों से नीचे उतर गया !!

खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..

खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..

बहुत लुभावना ,बहुत बड़ा अति आकर्षक संसार लिए..।

थोड़े बड़े हुए खुद जो..छोटे पग लगने लगे..

विस्तार जगत का देखा तो ,नापने वो भगने लगे..।

कुछ तो हाथ में आ जाए, मन भर के व्यापार हो..

लेकिन अनंत की चाह में खुद को ही ठगने लगे..।

प्रेम ऋतु भी आयी ,जीवन में कई बदलाव हुए..

छोटी सी दुनिया बसाने के पारित कई प्रस्ताव हुए..

आखिर में बन ही गई वो प्यारी सी दुनिया जो..

फंसे फंसे से, बुझे बुझे से.. दिखते हैं कुछ कुछ..

खुशियों की चाहत में अजीब से उतार चढ़ाव हुए..।

और बढ़े आगे जो..बहुत अशांत सा मन पाया हमने 

पीछे तो कुछ था ही नहीं, आगे भी ना समझ पाया हमने..

बहुत पढ़ा, बहुत सीखा था और लिखा था पन्नों पर..

अब तो कुछ याद नहीं.. हैं अब शून्यता के खंडहर से..

इमारत तो थी नक्काशी दार, हैं अब जर्जर आधार लिए..

खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..।।

औपचारिकताओं से जो इतने ना बंधे होते..

औपचारिकताओं से जो..

इतने ना बंधे होते..!

जीवन जीते जी भर के..

ऐसे ना सधे, तने होते..!

हां ये भी जरूरी ही है..

लेकिन उचित अनुपात में....

अंकुश और बंदिशों के काश !

कुछ तो मानक बने होते ।

औपचारिकताओं को ही निभाया हमने..

कुछ ना मन का कर पाया हमने..।

फिर आलस वश कुछ प्रतिकार भी नहीं ..!

मन को छुपा दिया हमने, अब किसी बात का सरोकार नहीं ..

काश होता कुछ अंतर्मन में ,एक अदद.. स्वीकार के सिवा 

कोई विरोध हालातों से.. एक जीवन निर्वाह के सिवा..

मन जैसा कुछ .. होता जीवन में ..जीवन से लगाव लिए..

मन ने औपचारिकताएं छोड़ मन के सपने बुने होते..।

अपने तो चिन्हित किए ..जीवन के स्वत: चुनाव ने..

काश ! औपचारिक ना होते इतने..सच में कुछ अपने होते...!!!

हे ईश्वर ! तुम रहते कहां हो??

 

हे ईश्वर ! तुम रहते कहां हो ??

हर जगह मौजूद हो ..ऐसा पता है मुझे..

देख लूं तुम्हें.. दिखते कहां हो??

मैंने सुना..तप करना होगा ..

तुम तक पहुंच सकूं..

संसार से उबरना होगा..।

पर हैं दावा करते लोग..

कुछ लोग हैं तुम्हारे खास !

कुछ घर हैं ठिकाने तुम्हारे..

लेकिन मुझे क्यूं है अविश्वास ..!

आकर तुम्हीं बताओ अब..टिकते कहां हो??

नाम तुम्हारा अपनी अपनी भाषा में,

रखे हैं रूप भी अलग अलग ..

अपनी अपनी परिभाषा में,

मैं भी नाम रख लूं कुछ और तुम्हारा..

मेरे प्रयोजनों से तुम !! 

संज्ञा रखते कहां हो ??

स्त्री पुरुष.. भी क्या तुम करते हो !!

अर्धनारीश्वर हो ना तुम ..

फिर भेद के क्यूं ..दुनिया में रंग भरते हो..??

विविध तुम्हारी दुनिया सिर्फ..

भेद नहीं कल्पना तुम्हारी..

इस अज्ञान की दुनिया में..

ये बात बतलाने को..

तुम विचरते कहां हो ??

ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही...

ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही... चले आते हैं, चले जाते हैं... सुबह शाम बिन कहे सुने.. न हाथों का मेल....