क्या हुआ जो..
निकल गए हैं सालों..
निर्णय तक आने में..।
मन पर वश ना था..
अपना लिया तुमको मन ने..
कर तुम्हारे पकड़ना चाह है..लेकिन..
आधार ही मेरा मिट जाएगा..
कर छोड़ कर आने में..।
विलंब समझते हो जिसको तुम..
वो मेरी एक मजबूरी है..
मनाने का यत्न है उनको..
जिनके बिना ये रस्म अधूरी है..।
हम तो एक हो सकते हैं ऐसे वैसे भी..
लेकिन क्या मिलेगा हमें यूं ..
उन सबकी व्यवस्थित ...
परिकल्पनाएं..इच्छाएं झुठलाने में..।
देखो ..प्रेम मुझे तुमसे ही है..
और कोई स्वीकार नहीं..
किन्तु..ये भी सच है प्रिय..
तुम्हारा ही मुझपर केवल अधिकार नहीं..।
भागना, पुराने रिश्ते तोड़ना ये भी तो कोई प्यार नहीं ..!!
मैं यत्न करूंगी.. तुम्हें मुझे एक साथ..
अपने हमारे स्वीकार करें ..दें आशीर्वाद ।।
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युवा पीढ़ी प्रेम को कितना समझती है..इसका मेरे पास कोई विश्लेषण मौजूद नहीं है..लेकिन युवाओं से मेरा निवेदन है कि यह कविता पढ़ें और प्रेम के नाम पर अपने भविष्य..माता पिता के सपने ..सामाजिक व्यवस्था का मजाक ना बनने दें..इस कविता का प्रथम पात्र एक युवती है..अन्यथा ना ले कोई लेकिन अधिकतर मामलों में गलत कदम लेने के लिए लड़के आतुर होते है और लड़कियों को उकसाते भी है..हालांकि ये मन की बेसब्री होती है ..किसी का दोष नहीं दूंगी..किन्तु रुकें ,सोचें ..और बड़ों की बात मानें..शुभ कामनाएं ।