छत से दूसरी छत के आज नजारे देखे हमने.
खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..
खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..
बहुत लुभावना ,बहुत बड़ा अति आकर्षक संसार लिए..।
थोड़े बड़े हुए खुद जो..छोटे पग लगने लगे..
विस्तार जगत का देखा तो ,नापने वो भगने लगे..।
कुछ तो हाथ में आ जाए, मन भर के व्यापार हो..
लेकिन अनंत की चाह में खुद को ही ठगने लगे..।
प्रेम ऋतु भी आयी ,जीवन में कई बदलाव हुए..
छोटी सी दुनिया बसाने के पारित कई प्रस्ताव हुए..
आखिर में बन ही गई वो प्यारी सी दुनिया जो..
फंसे फंसे से, बुझे बुझे से.. दिखते हैं कुछ कुछ..
खुशियों की चाहत में अजीब से उतार चढ़ाव हुए..।
और बढ़े आगे जो..बहुत अशांत सा मन पाया हमने
पीछे तो कुछ था ही नहीं, आगे भी ना समझ पाया हमने..
बहुत पढ़ा, बहुत सीखा था और लिखा था पन्नों पर..
अब तो कुछ याद नहीं.. हैं अब शून्यता के खंडहर से..
इमारत तो थी नक्काशी दार, हैं अब जर्जर आधार लिए..
खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए..।।
औपचारिकताओं से जो इतने ना बंधे होते..
औपचारिकताओं से जो..
इतने ना बंधे होते..!
जीवन जीते जी भर के..
ऐसे ना सधे, तने होते..!
हां ये भी जरूरी ही है..
लेकिन उचित अनुपात में....
अंकुश और बंदिशों के काश !
कुछ तो मानक बने होते ।
औपचारिकताओं को ही निभाया हमने..
कुछ ना मन का कर पाया हमने..।
फिर आलस वश कुछ प्रतिकार भी नहीं ..!
मन को छुपा दिया हमने, अब किसी बात का सरोकार नहीं ..
काश होता कुछ अंतर्मन में ,एक अदद.. स्वीकार के सिवा
कोई विरोध हालातों से.. एक जीवन निर्वाह के सिवा..
मन जैसा कुछ .. होता जीवन में ..जीवन से लगाव लिए..
मन ने औपचारिकताएं छोड़ मन के सपने बुने होते..।
अपने तो चिन्हित किए ..जीवन के स्वत: चुनाव ने..
काश ! औपचारिक ना होते इतने..सच में कुछ अपने होते...!!!
हे ईश्वर ! तुम रहते कहां हो??
हे ईश्वर ! तुम रहते कहां हो ??
हर जगह मौजूद हो ..ऐसा पता है मुझे..
देख लूं तुम्हें.. दिखते कहां हो??
मैंने सुना..तप करना होगा ..
तुम तक पहुंच सकूं..
संसार से उबरना होगा..।
पर हैं दावा करते लोग..
कुछ लोग हैं तुम्हारे खास !
कुछ घर हैं ठिकाने तुम्हारे..
लेकिन मुझे क्यूं है अविश्वास ..!
आकर तुम्हीं बताओ अब..टिकते कहां हो??
नाम तुम्हारा अपनी अपनी भाषा में,
रखे हैं रूप भी अलग अलग ..
अपनी अपनी परिभाषा में,
मैं भी नाम रख लूं कुछ और तुम्हारा..
मेरे प्रयोजनों से तुम !!
संज्ञा रखते कहां हो ??
स्त्री पुरुष.. भी क्या तुम करते हो !!
अर्धनारीश्वर हो ना तुम ..
फिर भेद के क्यूं ..दुनिया में रंग भरते हो..??
विविध तुम्हारी दुनिया सिर्फ..
भेद नहीं कल्पना तुम्हारी..
इस अज्ञान की दुनिया में..
ये बात बतलाने को..
तुम विचरते कहां हो ??
ये बिन बात का तकल्लुफ..
ये बिन बात का तकल्लुफ !!
खत्म करो अब सब वास्ते..
पुल ही उड़ा डालो मतलब के..
खुद तक बंद करो सब रास्ते.. ।
ये खुद की दुनिया भी मुकम्मल है..
किसी का दख़ल क्यों स्वीकारा जाए ??
एहसान जताते रहते हैं.. उपकार के नाम पर..
ऐसे ख़ुदाओं को क्यूं मदद के लिए पुकारा जाए !!
भूल जाओ चेहरे मतलबी और उन तक ही दौड़ते रहना..
तकलीफ तो यूं भी हैं..पूरी बिखोरो ये अधूरी मुस्कुराहटें..।
बहुत साधारण सा ज्ञान मुझको..
क्या हुआ जो.. निकल गए हैं सालों
क्या हुआ जो..
निकल गए हैं सालों..
निर्णय तक आने में..।
मन पर वश ना था..
अपना लिया तुमको मन ने..
कर तुम्हारे पकड़ना चाह है..लेकिन..
आधार ही मेरा मिट जाएगा..
कर छोड़ कर आने में..।
विलंब समझते हो जिसको तुम..
वो मेरी एक मजबूरी है..
मनाने का यत्न है उनको..
जिनके बिना ये रस्म अधूरी है..।
हम तो एक हो सकते हैं ऐसे वैसे भी..
लेकिन क्या मिलेगा हमें यूं ..
उन सबकी व्यवस्थित ...
परिकल्पनाएं..इच्छाएं झुठलाने में..।
देखो ..प्रेम मुझे तुमसे ही है..
और कोई स्वीकार नहीं..
किन्तु..ये भी सच है प्रिय..
तुम्हारा ही मुझपर केवल अधिकार नहीं..।
भागना, पुराने रिश्ते तोड़ना ये भी तो कोई प्यार नहीं ..!!
मैं यत्न करूंगी.. तुम्हें मुझे एक साथ..
अपने हमारे स्वीकार करें ..दें आशीर्वाद ।।
……..........…........................................................
….......…...…........................................….............
युवा पीढ़ी प्रेम को कितना समझती है..इसका मेरे पास कोई विश्लेषण मौजूद नहीं है..लेकिन युवाओं से मेरा निवेदन है कि यह कविता पढ़ें और प्रेम के नाम पर अपने भविष्य..माता पिता के सपने ..सामाजिक व्यवस्था का मजाक ना बनने दें..इस कविता का प्रथम पात्र एक युवती है..अन्यथा ना ले कोई लेकिन अधिकतर मामलों में गलत कदम लेने के लिए लड़के आतुर होते है और लड़कियों को उकसाते भी है..हालांकि ये मन की बेसब्री होती है ..किसी का दोष नहीं दूंगी..किन्तु रुकें ,सोचें ..और बड़ों की बात मानें..शुभ कामनाएं ।
ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही...
ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही... चले आते हैं, चले जाते हैं... सुबह शाम बिन कहे सुने.. न हाथों का मेल....
-
वो जो था कभी घर आंगन..... वो आज मकान बिकाऊ है. !! क्योंकर इतना हल्कापन.....!! रिश्तों का ये फीका मन......!! सब कुछ कितना चलताऊ है !! खूब कभी...
-
अनुबंध मन के ........तोड़कर जाएंगे कहां .. लौटेंगे यहीं..मन के आकर्ष झुठलाएंगे कहां.. व्यथित होंगे.............तलाशेंगे तुम्हीं को.. वेदना ह...
-
खेलते खेलते निकले थे.. जीवन का प्यार लिए.. बहुत लुभावना ,बहुत बड़ा अति आकर्षक संसार लिए..। थोड़े बड़े हुए खुद जो..छोटे पग लगने लगे.. विस्तार...