वो जो था कभी घर आंगन ..वो आज मकान बिकाऊ है

वो जो था कभी घर आंगन.....

वो आज मकान बिकाऊ है. !!

क्योंकर इतना हल्कापन.....!!

रिश्तों का ये फीका मन......!!

सब कुछ कितना चलताऊ है !!

खूब कभी सजाया था.........

बच्चों ने ही तो इतना भरमाया था..

ये घर मैंने ..बरसों के लिए बसाया था..

बिखर गया ..मैं ..मिट्टी आकाश में ..

ये घर भी बिखरेगा, समझ न पाया था..!!

मजबूती के मायने बस इतने ...

स्वार्थ ही अब , रह गया टिकाऊ है..!! 

घर मजबूरी में बिकते हैं..

टूटते हैं , रहने वाले जब..

नही संभलते हैं..

मजबूरी अगर झूठी हो..

कुछ मन की दरारों से..

कोई आस अगर टूटी हो..

बिकने न देना अंत तक..

जद्दोजहद के फलंत तक..

मकान नहीं मेरे अपनों..ये 

आश्रय अनंत दीर्घायु है ।।

ये आंगन , उपवन मन का..

कोना कोना अपना..

मेरा ये सपना ..

आशीर्वाद मेरा तुम्हारे लिए..

ये नहीं कोई चीज़...

ये नहीं बिकाऊ है..

ये नहीं बिकाऊ है...।।

बहुत से मसले हमने ...भगवान पर छोड़े हैं !!

बहुत से मसले हमने ..कहने को..भगवान पर छोड़े हैं..

खुद कितना बेपरवाह हैं ! ....…..बेखौफ भी यकीनन...

मासूमियत ओढ़े हुए हमने सिर्फ ..तथ्य तोड़े मरोड़े हैं..

दंड संहिता अपनी ..........बनाई है हमने खुद के लिए..

खुद को मांफियां अनगिनत..दूसरे के लिए घड़े पाप के जोड़े हैं.

बहुत से मसले हमने.....फिर क्यों भगवान पर छोड़े हैं !!

मतलबी कितने निकले हम..!! भगवान का नाम भुनाया खूब..

राहें गलत चलते रहे ......फिर उसपर इल्ज़ाम लगाया खूब...

हद भी बहुत पार की हमने..और उसको याद दिलाया खूब...

हो गए बेसुध बेसहारे ......हाथ पैर फिर क्योंकर जोड़े हैं...!!

बहुत से मसले हमने...............क्यों भगवान से जोड़े हैं!!

करने वाले हम ही..........फिर भरने वाले क्योंकर न हों..

सब अपनी करनी भरनी.....बेहतर या दिन बदतर हो....

सब प्रयोजन जब खुद से....परिणाम से क्यों मुंह मोड़ें हैं!!

बहुत से मसले हमारे....उसके कारण भगवान ही थोड़े हैं !!

फिर क्यों ठीकरे हमने............ भगवान पर फोड़े हैं!!

अनुबंध मन के..तोड़कर जाएंगे कहां

अनुबंध मन के ........तोड़कर जाएंगे कहां ..

लौटेंगे यहीं..मन के आकर्ष झुठलाएंगे कहां..

व्यथित होंगे.............तलाशेंगे तुम्हीं को..

वेदना हृदय की मिटाने को....मधुर मधुर..

कोमल कोमल वचनों के स्पर्श पाएंगे कहां..

आभासी होंगे प्रेम के रूप...और झूठे भी..

फिर भी हृदय जागेगा..कोलाहल के बीच ..

सुगंध सुबह की....यकीन के कलरव........

सदाबहार अनुग्रह ..आप छुपाएंगे कहां....

वीभस्त हो जाय भी तो क्या...ये व्यवहार..

किसी अर्थ का ना रहे प्रलय सम्मुख संसार..

फिर भी ..शेष की परिकल्पना का हर्ष लिए..

जीवन दर्शन के पर्व ..तुम बिन मनाएंगे कहां..

बहा देंगे ......मिटा देंगे..... प्राण भी गवां देंगे..

ये तो बहुत सहज सरस है..अवसान देह का...

पर जो अनंत है.........तुम्हारा मेरा संबंध.......

हां ये अनुबंध...... उसको दफनाएंगे कहां......

अनुबंध मन के...तोड़कर.... जाएंगे कहां......!!

ओ तीर के बैठईया...अब नही मिलोगे क्या ???


ओ तीर के बैठईया !
अब नहीं मिलोगे क्या ??
अब क्या हो गई अलग अलग नैय्या !!
उस पार हमें नहीं ले चलोगे क्या ??
ढूंढते थे हमें ..एक पल भी अलग होकर..
जीवन पथ के साथी..कैसे हो अलग होकर !!
तुमने तो विमान ले लिया ..अवसान ले लिया..
हम थे तुम्हारे ही सहारे..अब कुछ नही कहोगे क्या ??
सैय्या भी कठोर है.....और नींद खुली आंखों की.....
तुम बिन सब रिश्ते झूठे..दूरी ये अब बस सांसों की....
हाथ पकड़ के ले जाओ मुझे भी...अब अपने उस लोक में..
क्या मेरे लिए अब तुम ...इतना भी नहीं करोगे क्या ???
लड़कपन में तुम्हें देखा........यौवन में तुम्हें पाया........
बच्चों की कड़ी लेकर जीवन को साथ बढ़ाया.............
नाती पोतों वालों हमने हर पल साथ बिताया..............
ये वक्त सहन नहीं होता...इतनी लंबी यादें फिर भी.......
अंतिम विदा में मुझे ......फिर से नहीं वरोगे क्या??????
ओ तीर के बैठईया !!  .......अब दूर ही रहोगे क्या !!!!!
नहीं मिलोगे क्या ..............….................................
.....................................................................!!!


आज चले आते हैं वो.....

आज चले आते हैं वो ..

मखमली पहल बनकर..!

जिनकी कोशिश थी कभी..

ढहा देंगे मेरे सपनों के महल..

तूफानी कहर बन कर..!

लेकिन कुछ ऐसे निकले..

मेरी किस्मत के सितारे..

रह गए मंसूबे उनके..

बस बेअसर बन कर..!

बुरा भला किसी का.

तासीर में नहीं हमारी..

मिटे नहीं सूरत में किसी..

देख  चुके वो..

जहर बन कर..!

अचरज है मुझे..

क्यूकर बदल जाते हैं !

इंसान अपनी ही धुन से 

पलट जाते हैं..!

चलो देखा यूं भी दुनिया को..

दुश्मन कभी ..

कभी सहचर बन कर..!!

एक जगह थी खाली.. सामाजिक आधार बनाना था..।

एक जगह थी खाली..

सामाजिक आधार बनाना था..।

इसलिए जोड़े रिश्ते ..

मन से किसे निभाना था !!

तुम भी बहुत सही थे..

हम भी सीधे साधे..

सादे ही बंधन रखे हमने..

सादे सादे वादे..

उमंगों को बस बहलाना था..!!

ऐसा क्यों होकर रह गया..

पूछते क्यों हो मुझसे..??

सबसे आखिर में मेरी गिनती..!

आखिर में तुम भी ..!

मन तो बेसुध कब का..

प्रेम भी जैसे कोई किदवंती !!

आवश्कता थी साथ की बस..

बस खुद को कहीं ठहराना था !!

ऐसे ही हैं बंधन कई..

मन पर कोई दस्तक नहीं..

प्रतीक कई सर से पैर तक..

सजते तन पर केवल..

पहुंचते कभी मन तक नहीं..

एक घरौंदा बनाया हमने..

और खूब सजाया हमने..

बस कैद कहीं हो जाना था !!

यूं ही जोड़े रिश्ते..

मन से किसे निभाना था!!


कोई कोना हो हृदय का खाली थोड़ा बहुत

कोई कोना हो हृदय का खाली थोड़ा बहुत...

समाहित कर लेना...मेरा अभिवादन..धन्यवाद..

यदि ना हो..तो अविरल धारा बना देना..।

मैं जो ऋणी हूं आपकी..मेरे जुड़े हुए हाथ आपको..

अपने करो को जोड़कर किसी का ऋण चुका देना..।

ऐसे ही हर भावना..जुड़ती जाए अनंत तक..

पहुंचे सुदूर..पूरे गगन में प्रसार हो..

मेरा प्रणाम आपको..मेरा श्री राम आपको..

जिस से मिलो उसको श्री राम का उदघोष सुना देना..

मेरी मुस्कान का स्रोत महादेव का आलय है..

जीवंतता मेरे हृदय की ..उनका ही प्रशय है..

मेरी मुस्कान को समझना संदेश शांति और प्रेम का..

आए जो भी सामने..मिलकर मुस्कुरा देना..।।

ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही...

ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही... चले आते हैं, चले जाते हैं... सुबह शाम बिन कहे सुने.. न हाथों का मेल....