एक जगह थी खाली..
सामाजिक आधार बनाना था..।
इसलिए जोड़े रिश्ते ..
मन से किसे निभाना था !!
तुम भी बहुत सही थे..
हम भी सीधे साधे..
सादे ही बंधन रखे हमने..
सादे सादे वादे..
उमंगों को बस बहलाना था..!!
ऐसा क्यों होकर रह गया..
पूछते क्यों हो मुझसे..??
सबसे आखिर में मेरी गिनती..!
आखिर में तुम भी ..!
मन तो बेसुध कब का..
प्रेम भी जैसे कोई किदवंती !!
आवश्कता थी साथ की बस..
बस खुद को कहीं ठहराना था !!
ऐसे ही हैं बंधन कई..
मन पर कोई दस्तक नहीं..
प्रतीक कई सर से पैर तक..
सजते तन पर केवल..
पहुंचते कभी मन तक नहीं..
एक घरौंदा बनाया हमने..
और खूब सजाया हमने..
बस कैद कहीं हो जाना था !!
यूं ही जोड़े रिश्ते..
मन से किसे निभाना था!!
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति। बढ़िया सृजन।
ReplyDeleteमन तो बेसुध कब का..
ReplyDeleteप्रेम भी जैसे कोई किदवंती !!
बेहतरीन
वाह...सोचने को विवश करती सुन्दर रचना।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसमझौतों पर संसार टिका है | मन का अविरल संवाद सहजता से बह निकला है इस रचना के माध्यम से प्रिय अर्पिता जी
ReplyDeleteहूँ...। आपकी इस अभिव्यक्ति को पढ़कर रिश्तों के कई जाने-अनजाने पहलू दिखाई दे रहे हैं ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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