एक जगह थी खाली.. सामाजिक आधार बनाना था..।

एक जगह थी खाली..

सामाजिक आधार बनाना था..।

इसलिए जोड़े रिश्ते ..

मन से किसे निभाना था !!

तुम भी बहुत सही थे..

हम भी सीधे साधे..

सादे ही बंधन रखे हमने..

सादे सादे वादे..

उमंगों को बस बहलाना था..!!

ऐसा क्यों होकर रह गया..

पूछते क्यों हो मुझसे..??

सबसे आखिर में मेरी गिनती..!

आखिर में तुम भी ..!

मन तो बेसुध कब का..

प्रेम भी जैसे कोई किदवंती !!

आवश्कता थी साथ की बस..

बस खुद को कहीं ठहराना था !!

ऐसे ही हैं बंधन कई..

मन पर कोई दस्तक नहीं..

प्रतीक कई सर से पैर तक..

सजते तन पर केवल..

पहुंचते कभी मन तक नहीं..

एक घरौंदा बनाया हमने..

और खूब सजाया हमने..

बस कैद कहीं हो जाना था !!

यूं ही जोड़े रिश्ते..

मन से किसे निभाना था!!


7 comments:

  1. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति। बढ़िया सृजन।

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  2. मन तो बेसुध कब का..

    प्रेम भी जैसे कोई किदवंती !!

    बेहतरीन

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  3. वाह...सोचने को विवश करती सुन्दर रचना।

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  4. This comment has been removed by the author.

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  5. समझौतों पर संसार टिका है | मन का अविरल संवाद सहजता से बह निकला है इस रचना के माध्यम से प्रिय अर्पिता जी

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  6. हूँ...। आपकी इस अभिव्यक्ति को पढ़कर रिश्तों के कई जाने-अनजाने पहलू दिखाई दे रहे हैं ।

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ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही...

ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही... चले आते हैं, चले जाते हैं... सुबह शाम बिन कहे सुने.. न हाथों का मेल....