कभी कभी पतझड़ों का कोई विराम नहीं होता..

कभी कभी पतझड़ों का..
कोई विराम नहीं होता..।
गुजरते रहतें हैं...यूं तो
कई दिन सुबह और शाम ..
मुकम्मल मुकाम नहीं होता..।
मैं शायद या फिर ..
जंगलों की तरफ ..
रुख किए हुए हूं..
इधर कोई नहीं गुजरता..
किसी का इधर शायद..
एहतराम नहीं होता..।
नई कोपले निकले..
फिर अदब का माहौल हो..
जड़ में रह गया है जीवन..जो
चेहरे पर फिर रौनक ए शाम हो..।
पतझड़ों का विराम हो..।

7 comments:

  1. अपनी जड़ से निकल कर जीवन
    जब फूल से फल बन जाएगा
    शायद तब ही पतझड़ पर
    पूर्ण विराम लग पाएगा।

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  2. वाह क्या बात है ?
    बहुत खूब जी !

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  3. धन्यवाद मित्र

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  4. शुक्रिया जी

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  5. उम्दा अभिव्यक्ति ।

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  6. जीवन चक्र परिक्रमाओं सा है
    कभी कभी यह लम्बी हो ऐसे स्थान से गुज़रती है कि लम्बी रात झकझोर देती है

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ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही... चले आते हैं, चले जाते हैं... सुबह शाम बिन कहे सुने.. न हाथों का मेल....