ना मन में ना जीवन में..।
था भी कभी ..तो क्या था??
प्रेम एक दुविधा था..।
लेकिन वही शायद ..
प्रेम सर्वथा था..।
शब्दों के स्पर्श थे..
नैनों के वचन थे..
अधरो के मुस्कुराने से..
देखते थे तुम्हें..
प्रेम था मुझे तुमसे..।
जब कुछ भी नहीं सहज था..
मन कौतूहल मचाता था..।
देखने की उत्कंठा थी मात्र..
छूने से प्रेम डर जाता था..।
प्रेम था सहसा उपजा ..।
कोई वहां प्रयोजन नहीं था..।
अब है तो क्या है..!!
मन शांत..कौतूहल शांत..
प्रेम अशांत है किन्तु..
एक खीच तान संघर्ष है..
आज प्रेम मात्र भ्रामक विमर्ष है..।।
बदलते मायनों के इस दौर में प्रेम प्रेम नहीं भ्रामक विमर्श ही है।
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी मेरे लिए अमूल्य है..
ReplyDeleteधन्यवाद आपका
बिलकुल सही बात है मित्र !
ReplyDeleteवैसे भी हकीकत की दुनिया में ये बातें है ही नहीं !
प्रभावी लेखन ।
ReplyDelete