आंखो से मैं कई..
आंकी जाती हूं..
चलाकर मैं परखी जाती हूं..
मां बाप का बोझ उतरने को..
कैसे कैसे मैं !!
देखी जाती हूं..!
कैसे कैसे मैं !!
ताकी जाती हूं..!
ये लड़की दिखाई नहीं..
अपराध बोध सा लगता है..
लड़की होने के एवज में..
मैं लगता है..मात्र !
एक अपराधी हूं !!
सवाल कई पूछे जाते हैं..
तंज भी मारे जाते हैं..
निर्णय पर यदि पहुंचे तो..
दाम हमारे तय होते हैं..!!
नए संबंधो की हामी में..
हम तो सिर्फ विलय होते हैं..!!
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स्वालंबी यदि नारी हो..
इतनी ना वो बेचारी हो..
बोझ ना लगे मां पिता को..
निर्णयों में उसकी हिस्सेदारी हो..
शिक्षा, सुरक्षा स्वालंबन..
ये वो गहने हो मां बाप के..
रखते हैं संजो के जिसे..
बेटी के जन्म से उसके..
भविष्य के लिए..
विलय नहीं उत्थान हो..
कन्यादान का अभिप्राय बदलो..
ताकि कन्याओं का कल्याण हो..।।
"निर्णय पर यदि पहुंचे तो..
ReplyDeleteदाम हमारे तय होते हैं..!!
नए संबंधो की हामी में..
हम तो सिर्फ विलय होते हैं..!!"
सही कहा आपने। इस तथाकथित विकासशील युग में भी हमारी पुरातन सोच अब भी कायम है।