तुम पर इल्ज़ाम लगाएंगे कैसे..
धुरी तुम्हारी ही..तुम्ही से तो सधे हुए हैं ..
बोझिल मन हो सकता है...
समर्पण भाव खो सकता है...
तुमसे दूर जायेंगे कैसे ...
मन से इतने जो बंधे हुए हैं...
कलह कोई, द्वेष कोई..
न रखना बहुत देर तक...
नही पहुंचती मेरी मंशा भी..
रिश्तों के इन हेर फेर तक..
तुमको उलझाएंगे कैसे..
तुम्हारी ही जद में पड़े हुए हैं..
घर मेरा तुम्हारा ................
..ये जमावड़ा...रिश्तों का जाल सारा..
ये कांटा ...वो मछुवारा....
इन सबमें तुमको फसाएंगे कैसे..
किसी बात पर तो हम भी..
अकर्मण्य से तड़प रहें हैं...!!!!!!