बनाएंगे तो खाएंगे..
हमें कोई बनाकर खिलाता नहीं..
आते हैं बाहर से ..
पानी भी कोई पिलाता नहीं..
ये शिकायत नहीं है कोई..
मन का बस उदगार है..
कोई मशविरा हमसे लिया जाता नहीं..!
कौनसा रंग होगा..
उस दुनिया का..
हमारी आंखों में देखा जाता नहीं !
अंश हमारे जो हैं..
संभालने का तो आदेश हमें..
उन हाथों में लेकिन हाथ हमारा..
थमाया जाता नहीं..
....................….......
यही क्रम है..
होता आया यही..
बहन भाई का बढ़ना समान ..
व्यवहार में अभी..
आया नहीं..
मां और पिता ..
स्नेह बराबर दोनों का..
बच्चों ने समझ पाया नहीं..
पति पत्नी के अधिकार बराबर..
आदर और प्यार बराबर..
ऐसा जीवन जो ..
बन पाया नहीं..
....……..…........................
........................................
बनाएंगे तो खाएंगे..
लेकिन..सोचते हैं..
कभी तो वो दिन आयेंगे
मिलकर खाना बनाएंगे..
मिलकर वक्त बिताएंगे..
द्वार कभी खुलेगा आने पर मेरे..
खड़े होंगे..
बरसो की प्यास बुझाने को..
एक ग्लास पानी लिए
मेरे अपने प्रिय........……........
बेटी, आपकी कविता बहुत ही सुन्दर हे ओर शब्दों की सही मिश्रण हे। कुछ सिकायत से भरे हुए हैं। आपकी सारी सोच अपनी जगह सही है, पर अपेक्षा - expectation साथ में लेकर चलोगे तो मानसिक संताप जरुर बढ़ जाएगा। में आशा करता हूं के ये लेख काल्पनिक हो, वास्तब से कोसों दुर हो। आशीर्वाद स्यीकार करें। धनतेरस कि शुभकामनाएं।🙌🙌
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