लौटेंगे यहीं..मन के आकर्ष झुठलाएंगे कहां..
व्यथित होंगे.............तलाशेंगे तुम्हीं को..
वेदना हृदय की मिटाने को....मधुर मधुर..
कोमल कोमल वचनों के स्पर्श पाएंगे कहां..
आभासी होंगे प्रेम के रूप...और झूठे भी..
फिर भी हृदय जागेगा..कोलाहल के बीच ..
सुगंध सुबह की....यकीन के कलरव........
सदाबहार अनुग्रह ..आप छुपाएंगे कहां....
वीभस्त हो जाय भी तो क्या...ये व्यवहार..
किसी अर्थ का ना रहे प्रलय सम्मुख संसार..
फिर भी ..शेष की परिकल्पना का हर्ष लिए..
जीवन दर्शन के पर्व ..तुम बिन मनाएंगे कहां..
बहा देंगे ......मिटा देंगे..... प्राण भी गवां देंगे..
ये तो बहुत सहज सरस है..अवसान देह का...
पर जो अनंत है.........तुम्हारा मेरा संबंध.......
हां ये अनुबंध...... उसको दफनाएंगे कहां......
अनुबंध मन के...तोड़कर.... जाएंगे कहां......!!
मन के अनुबंध तोड़कर कहीं जाना मुमकिन है भी नहीं अर्पिता जी। आप कम लिखती हैं। इस मुश्किल वक़्त में अपना ख़याल भी रखिए और जब भी मन जैसा कुछ मन में आए, उसे अल्फ़ाज़ में ढल जाने दीजिए।
ReplyDeleteबहुत सटीक कहा आपने 🙏
Deleteवाह! बहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteवेदना हृदय की मिटाने को....मधुर मधुर..
ReplyDeleteकोमल कोमल वचनों के स्पर्श पाएंगे कहां..
वाह क्या बात है ।
अति सुंदर सृजन
सादर
बहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteमन के अनुबंधों पर बेहद खूबसूरत रचना, कि "जीवन दर्शन के पर्व ..तुम बिन मनाएंगे कहां.."---वाह
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteअनुबंध मन के ........तोड़कर जाएंगे कहां ..
ReplyDeleteलौटेंगे यहीं..मन के आकर्ष झुठलाएंगे कहां..
व्यथित होंगे.............तलाशेंगे तुम्हीं को.
वेदना हृदय की मिटाने को....मधुर मधुर..
कोमल कोमल वचनों के स्पर्श पाएंगे कहां//
किसी पर अधिकार की पराकाष्ठा का दावा करते स्नेहिल उदगार ! आत्मीयता के स्पर्श मन के अनुबंध अटूट हो जाते हैं |
बहुत सुन्दर , बिकुल सही |
ReplyDeleteकहीं ना जा पायेंगे
ReplyDeleteयहीं रहेंगे और मंडरायेंगे
ख्यालों में यादों में