खूबसूरत नहीं थी मैं..तुम भी मनोहर नहीं थे

खूबसूरत..नहीं थी मैं..

तुम भी मनोहर नहीं थे..।

साथ में आए तो..
नयन मेरे चमकने लगे..
तुम भी मुस्कुराने लगे..।
और साथ चले जब..
जीवनसाथी बनकर..
आकर्षण के कवच त्यागकर..
हम दोनों एक दूसरे को पसंद आने लगे..।
फिर पंख एक हो गए..
हम अनंत में खो गए..
ढूंढ कर लाए हम किलकारियां..
प्रेम को समझ पाने लगे..।
ख्वाहिशें मेरी हो गईं तुम्हारी..
तुम्हारी चाहते हम चाहने लगे..।
जीवन की सब गलियों से निकलकर..
साथ बैठे जब बहुत दूर चलकर..।
जहां हृदय का पूर्ण संगम हो..।
कुछ खूबसूरत है..तो मैं हूं..
कुछ मनोहर है..वो तुम हो..।।

चांद विषय है...

चांद विषय है ...
कई लेखों का..
कई कविताओं का..
कई बातों का..
कई मुहावरों का..
कई अभियानों का..
कई उड़ानों का..।
अब चांद पर और क्या !
जो है आकर्षण दुनियाभर का
उस पर भला और गौर क्या..।
गुरुत्वाकर्षण ज्वार भाटे का..
पृथ्वी का कोई मीत या..
दुश्मनी में रची बसी कोई रीत..।
चांद रात के किस्से संभालिए..
आभासी दुनिया से खुद को निकालिए..।
दुनिया दूर की खूबसूरत सी ही है..
देखने को असलियत मन की दूरबीन निकालिए..।
बदसूरत होना भी यूं तो कोई पाप पुण्य का लेखा नहीं..।
मन के स्वीकार्य हैं कभी सुलझे हुए कभी उलझे हुए..
कभी किसी ने मन से नहीं देखा, कभी मन देखा नहीं..।।

प्रेम भी कोई चीज़ है क्या !!

प्रेम भी कोई चीज़ है क्या !!

करने को ,कर गुजने को !!

एहसास कहूं तो झूठा है..

दिमाग ने दिल को लूटा है..।

मतलबी जब लोग सभी..

ये बंधन कैसे दिलों का हैं !!

कितने उदाहरण है घूमते ..

वो जो थे कभी माथे को चूमते..।

चिता जलाकर भूल गए वो 

रुखसत हुए है हम दुनिया से सिर्फ 

रिश्ता तो नहीं टूटा है..।

मै हमारे तुम्हारे बच्चों में अभी जिंदा हूं

प्रेम था जिससे तुमको मैं वही वृंदा हूं..

कुंवारे बन के ले आए एक नए प्रेम को..

अब तो यकीनन कहीं प्रेम नहीं..

शरीर से बंधा मन होगा ये 

मन से मन का मिलन नहीं..

प्रेम है झूठी परिकल्पना..

प्रेम से भरा यहां कोई मन नहीं..।।

जो बंदिशे नहीं होंगी.. निश्चल प्रेम भी नहीं होगा..

जो बंदिशे नहीं होंगी..

निश्चल प्रेम भी नहीं होगा..।

मिलन में कोई मतलब हो सकता है..

ना मिले ..और प्रेम हो जाय सदा के लिए..

बस वही तो मन का प्रेम होगा..।

प्रेम अगर आलिंगन है..

अधरों का मिलन है..

और समाजिक व्यवहार नहीं..

निश्चित ही ये कुछ और है..

ये मौलिक प्यार नहीं..

मौलिकता को समझोगे कैसे ?

नैतिक जब मन के उदगार नहीं..

वो जो फांसते हैं मीठी मीठी बातों से..

उनको समझाना मुश्किल है..

तुम ही समझो हे प्रिया..

प्रेम अवश्य है जगत में..

तुम्हारे  लिए कहीं छुपा..

छुपा हुआ हो मकसद जिनका..

वो तुम्हारा प्यार नही...।।।।।

तुम्हारी हमारी ना सही किसी की तो होगी..

तुम्हारी हमारी ना सही किसी की तो होगी..

ना रही ज़िन्दगी अपनी फिर भी ..।

बाकी ज़िन्दगी होगी ..

तुम कहने को कुछ चूक जाओगे..

हम सुनने से कुछ रह जाएंगे..

बातें फिर भी यही सब ..

आगे पीछे किसी ने कही होंगी..।

मन व्याकुल हो कर शिथिल हो गया जो..

सब कुछ व्यर्थ सा लगता है..।

अब आंखे मूंद ही लें..लेकिन

कुछ सोच सोच कर मन में..

शेष समर चलता है..।

बहुत जिया, जी भर जिया..

सब काम काज निपटा भी दिए..।

जो था आवश्यक संसार व्यवहार..

सब बेड़ा पार लगा भी दिए..।

बूढ़े तन में लेकिन डूबा मन ..

कई पीढ़ियों का संसार रचता है..।।

प्रिय तुम्हारी भेंट...

प्रिय तुम्हारी भेंट..
आज पुष्पों से आच्छादित है..।
यदि ये एक फूल होता मात्र..
या कोई गुलदस्ता ..
कुछ रोज़ में मुरझा गया होता..
मुश्किल भी होता बचाना उसे..
सोचो कैसे वो भला बचा होता..।
लेकिन गमले में लगा ये पौधा..
मेरे सामर्थ्य में है इसे सींचना..
पालना , उसे बढ़ते देखना..।
इसकी टहनी से मैंने और भी..
हरियाली प्रेम की पाई है..।
नई ऊर्जा हर एक कली के साथ..
ये नहीं कुछ देर का साथी..
बिल्कुल तुम्हारे प्रेम की तरह..
ये भी कालजयी है..।।

छत से दूसरी छत के आज नजारे देखे हमने.

छत से दूसरी छत के आज नजारे देखे हमने..
कुछ बच्चों को खेलते देखा..कुछ को बैठे शांत..
फूलों के गमले, मुरझाईं कुछ बेलें, कुछ जीवन विश्रांत..
कुछ स्त्रियों के केश मेहंदी में डूबे हुए..
छुपाने की,रंगने की,  क्योंकर चाहत ?
कुछ बीते हुए को पाने की शायद थी अकुलाहट..
कुछ पुरुषों को बैठे देखा भिन्न भिन्न अवेगों में..
अखबारों के पन्ने कुछ ..उन अलसाई आंखों में..
भविष्य के कुछ सपने देखे..साथ बैठे कुछ अपने देखे..
परिवार देखे कुछ..कुछ अकेलेपन के दर्पण देखे..
इस सर्दी की धूप में ........छत पर खड़े हुए .....
देखे कुछ ताजातरीन रिश्ते..कुछ औंधे मुंह पड़े हुए..
खुद की छत पर भी देखा कुछ, मन भर गया..
दृश्य इधर उधर के , कभी कभी मेरे अपने घर के..
मन ने जो देखा आंखों के आइने से, चुपके से..
धीरे धीरे बोझिल बोझिल मन सीढ़ियों से नीचे उतर गया !!

ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही...

ओझल तन मन...जीवन.. हम तुम केवल बंधे बंधे.. हम राही केवल, नहीं हमराही... चले आते हैं, चले जाते हैं... सुबह शाम बिन कहे सुने.. न हाथों का मेल....